हे प्रेयसी (कविता)
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छुपी कहां बैठी हो
हे प्रेयसी... तुम
जाने कब से
ढ़ूढ़ रहा हूं
जाने
कहां-कहां मैं...
नीले अम्बर में
उमड़ते बादलों में
सूरज की तपिश में
चांद की चांदनी में
तारों की झुरमुट में
हवा की झोंको में
धरा की खामोशी में
समुंद्र की गहराई में
दिन के उजाले में
रात की कालिमा में
फूलों की खुशबू में
कांटों की चुभन में
कलियों की अंगड़ाई में
भौरों के गुनगुन में
हे प्रेयसी...
अब तो आ जाओ
और आकर
प्रेम का अखण्ड
दीप प्रज्वलित कर
मेरे जीवन पथ को
आलोकित कर दो.....
शब्द एवं चित्र
रेणुका श्रीवास्तव
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