कविता


फागुनी बयार
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बह रही थी फिजाओं में
सुरसुरी सी ठंड़ी-ठंड़ी फागुनी बयार
विरह वेदना में डूबी विरहणी
बंद खिड़की के झरोखों से
झांक रही थी, चांद को
पिया मिलन की आस में
सूनी थी आंखें, लब थरथरा रहे थे
करने लगी मन की बातें, वह निर्मोही चांद से
तुम तो आ गये, पर क्यों छोड़ आये 
कहां और किस हाल में,  मेरे दिलदार को
कैसे मनाऊं बिन पिया के, होली का त्यौहार बरसाऊं मैं किस पर, रंगों के अम्बार को
मौन है तरंगें दिल की, जज़्बात भी खामोश है
समझाऊ कैसे, दिल के बुझे एहसास को
चांद बोला, न हो,पगली, तू इतनी उदास...
और न तू मार, अपने मन की झंकार को
क्योंकि,
होता है होली, मिलने-मिलाने का त्यौहार
आ रहे हैं पिया तेरे, संग खेलने को होली
सुनकर बावली के मचल उठे अरमान
झूम उठी विरहणी, ले हाथों में गुलाल
बिखराने व फैलाने लगी हवाओं में
ढ़ेर सारी रंगबिरंगी रंगों की फुहार 
तभी अचानक,
रंगों से सराबोर पिया को सामने देख...
लजाती, शर्माती हुई.... सिमट के
दौड़ गई, पिया के आगोश में
भींग गये परिधान सारे, रंगों के फुहार से
विरह वियोग की वेदना होली की
खुशियों में बदल गई..रंगों से हो सराबोर...
बहने लगी फिजाओं में ठंड़ी-ठंड़ी
मदमस्त सुरसुरी सी फागुनी बयार......
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शब्द एवं चित्र
रेणुका श्रीवास्तव 
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