आना और जाना (कविता)

आना व जाना (कविता)
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धरा की गोद में,नवजीवन
मिला है, तुमको आज ही।
जीकर अपने जीवन के हसीन पल,
हम होंगें विदा, आज ही।
आने-जाने के मध्यस्थ बेला में,
जीवंत रहते है, हम एक साथ।
खिलते और चहकते हुए,
करते है गुलजार हम अपना चमन।
नये व पुराने की संगम बेला में,
गीत मिलन व विरह के गाते है।
पल-पल आगे बढ़ती जिंदगी में,
तुम पल्लवित हो, हम विसर्जित होंगें।
नई जागृति से तुम उभरोंगे,
अतीत बन मैं मुरझाऊंगा।
वर्तमान के जीवंत माहौल से,
मैं भूत, तो तुम भविष्य कहलाओगे।
अभ्युदय व अस्त का ये सिलसिला,
है बनता-बिगड़ता खेल ये युगों का।
प्रकृति का ये अनोखा भँवरजाल,
चक्र है, अविराम गति से घूमने वाला।
जो यूं ही सदियों से, सदियों तक,
चलता रहा है…और चलता रहेगा।
और यूं ही रहेगा चलायमान, 
युगों के अनंतकाल तक…..।

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