आना व जाना

गमले में लगे दो तरह के फूलों को देखकर मन में एक भाव जागृति हो गया। उसी भाव के अभिव्यक्ति स्वरूप इस कविता का जन्म हुआ है।
आना व जाना
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धरा की गोद में....
आना हुआ तुम्हारा आज,
और आज ही हम जा रहे हैं।
आने-जाने के मिलन बेला में,
साथ-साथ हम जीते है।
खिलते व चहकते हुए,
गुलज़ार करते हैं अपना चमन।
नये व पुराने के संगम में,
सामंजस्य हम बैठाते हैं।
नई जागृति से तुम उभरोंगे,
अतीत बन मैं मुरझाऊंगा।
वर्तमान के जीवंत माहौल से,
मैं भूत, तो तुम भविष्य कहलाओंगे।
अभ्युदय और अस्त का ये सिलसिला,
युगों का बनता बिगड़ता खेल है।
अविराम गति से चलती जिंदगी मे,
तुम पल्लवित, तो हम विसर्जित होंगें।
प्रकृति के अनोखे भंवरजाल में,
हमारा आना व जाना.....
अविराम गति से चलने वाला चक्र है।
जो यूं ही सदियों से, सदियों तक...
चलता रहा है.....और चलता रहेगा।।।।।

श्रीमती रेणुका श्रीवास्तव

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