दो रोटी की दरकार (कविता)

भीड़ भरे उस सुंदर हाल

के गहमागहमी माहौल में

गूंजती थी चहुंओर एकसाथ

रामू इधर आओ की पुकार


तब रामू के डगमग पांव

डोलते  हुए चकरघिन्नी से

कभी इधर, तो कभी उधर

पहुंचते थे एक-एक के पास


उसके दोनों हाथ भरे होते थे

पानी भरे जग व गिलास से

कभी रसमलाई से, तो कभी

चाय की केतली व कुल्हड़ से


भागम-भाग के इस  दौर में

कब और कैसे सिकुड़ जाती

क्षुधा से तिलमिलाती उसके

पेट की ज्वाला व बेकरारी



तभी तो वह भूल जाता था कि

उसे भी है दरकार दो रोटी की

खाकर जिससे वह मिटा सकता

अपनी थकान व बेचैनी भूख की


ऐसी विषम परिस्थितियों में भी

कम नहीं होता था दौड़ना उसका

भींगे हुए पसीने से लथपथ, अपनी

कमीज़ से पोंछता था अपना माथा


उस गहमागहमी भरे माहौल में

तब भी समय नहीं बचता था

किसी के पास थोड़ा सा भी जो

यह सोच सकें कि वह भी है


अपने परिवार का पालनहारा

छोटे भाई-बहन का रखवाला

बुढ़े बाप की लाठी  सा सहारा

और अपनी मां का राजदुलारा ।।।

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