तृप्ति (लघुकथा)

कल टेस्ट समाप्त हो चुके थे। सुबोध जल्दी से बैट-बॉल लेकर अपने दोस्त नीरज को बुलाने चला गया। नीरज के घर पहुंचने पर सुबोध ने देखा कि नीरज के पापा बाहर जल चढ़ा रहे थे। अंदर जाने पर उसने देखा कि ढ़ेर सारे खाने वाले समानों से भरा थाल है। नीरज नहा रहा था तो सुबोध वहीं एक तरफ खड़ा हो गया। उसने देखा नीरज के पापा जल चढ़ा कर अंदर आये, फिर पूजा किए। उठते समय वे नीरज की माँ से बोले," अलका, तुम ये सामग्री मंदिर में दे आना। मुझे देर हो रही है। मैं ऑफिस के लिए तैयार होने जा रहा हूँ।"
" ठीक है, मैं अभी पंंड़ित जी को दे आऊंगी। आप निश्चिंत रहिए।" अलका अपना काम करती हुई बोली।
नीरज जब सुबोध के पास आया तो सुबोध नीरज से पूछा," तुम्हारे पापा प्रतिदिन तो पूजा नहीं करते है, फिर आज क्यों कर रहे थे?" 
"आज पितृविसर्जन है। पापा बोल रहे थे कि आज जो कुछ दान करो, वह बाबा-दादी को मिलता है। इसलिए आज उनके मनपसंद की खाने की चीजें आदि बनती है। और ढ़ेर सारे उनके मनपसंद कपड़े और सामग्री दान देते है।"
" अरे याद आया। एकबार मामा को भी मैंने ऐसी ही भोजन इत्यादि सामग्री दान में देते हुए देखा था। तब मैं थोड़ा छोटा था, इसलिए ज्यादा ध्यान नहीं दिया।"
" हाँ दोस्त, कहते है ऐसी दान से मृतक आत्माएं तृप्त होती है।"
" तुम कह तो ठीक रहे हो, पर मैं तो अपने बाबा-दादी को अभी से जीवित समय में ही उनकी बात मानता हूँ और तृप्त रखना चाहता हूँ, तभी अपना किट-कैट, टॉफी, पिज्जा आदि सभी खाने की चीजें उन्हें देता हूँ और उनके साथ पार्क जाकर उन्हें टहलाता भी हैंहूँ, जिससे वे अभी से संतुष्ट रहे। यदि वे संतुष्ट रहेंगे, तब हमें बड़ा होकर ऐसी पूजा व दान नहीं करना पड़ेगा।"
" तुम बिलकुल ठीक ही कह रहे हो। पूजा-दान की बातें तो बड़े होने पर देखी जायेंगी। क्योंकि हमें अपनी परम्पराएं भी नहीं तोड़नी चाहिए। पर अब मैं भी इस बात का बराबर ध्यान रखूंगा कि मम्मी-पापा जीवित समय में ही खुश व तृप्त रहें। ताकि मेरे मन में उनके अतृप्त होने की भावना न जागे।" 
"हाँ, तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है।" यह कहकर दोनों दोस्त खेलने के लिए पार्क में चले गये।

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