दिल से बड़ा होना (लघुकथा)

नये कालेज में आने के बाद रानू की दोस्ती सुमन से हो गई। शीतल का अपनी जैसी पढ़ने में तेज दो लड़कियों से अलग दोस्ती थी। अतः कालेज के पहले साल रानू शीतल तक पहुँची ही नहीं, पर एक साल बाद अगली कक्षा नौ में पहुँचने पर साइंस के छात्रों की अलग कक्षा होने के कारण उसकी दोस्ती शीतल से हो गई। तीनों दोस्त रानू, सुमन और शीतल की तिकड़ी पूरे साल एक साथ मधुर रिश्ते में बँधकर अपने खट्टे मीठे अनुभवों को साझा करती रही। परीक्षा के समय ही रानू के पापा का ट्रांसफर हो गया। वे सरकारी सेवा में उच्च अधिकारी थे। परीक्षा के आखिरी दिन रानू सुमन के साथ शीतल के घर गई। दो-तीन घंटे के धड़ामचौकड़ी के बाद विदा की बेला आई। जब शीतल रानू और सुमन को छोड़ने सड़क तक आई, तब एक छुपा पैकेट वह अपने फ्राक के बीच से निकालकर रानू को पकड़ा दी। रानू इस अप्रत्याशित उपहार को अचानक पाकर आश्चर्यचकित हो शीतल के दिल में छुपे भावों की कोमलता को पढ़ने लगी। शीतल द्वारा मिले इस अमूल्य निधि ने रानू के दिल को तरंगित करने के साथ ही आँखों को नम भी कर दिया। बिछोह की बेला में यह एक सुखद एहसास था। जो बेहद खुशी का पल साबित हुआ। 
बाद में छोटी-छोटी जरूरत की चीजों से बना शीतल का उपहार खोलने पर रानू की आँखें भी खुल गई। यह उपहार रानू को कचोटने के साथ ही अपनी सोच में कमी के कारण अफसोस और शीतल के उदार प्रवृति के कारण खुशी व संतुष्टि का बोध कराता था क्योंकि आर्थिक दृष्टि से वह शीतल से ज्यादा सक्षम और संपन्न थी। अपने अंदर की कमी को महसूस करके रानू को एक सीख मिली कि दूसरों को दिल से दिए जाने वाला उपहार जितना ज्यादा खुशी दूसरे को देता है, उससे ज्यादा वह स्वयं के आत्मबल और आत्मनिर्भरता को बढ़ाता है। 
रानू को शीतल के दिए उपहार से जो मूलमंत्र मिला, उससे वह समझ गई कि किसी को कुछ देने के लिए दिल का बड़ा होना जरुरी है, ना कि आर्थिक रूप से सक्षम होने या दिल के भावों के जागने की इंतजारी में हाथ पर हाथ रखकर निष्क्रिय बैठे रहना। देने से दिल बड़ा और महान होता है और न देने से मन में कुंठा और संकीर्ण भावना पनपती है। अतः मन को सकारात्मक और उर्जावान बनाने के लिए मन के भावों को जाग्रत करना बहुत जरूरी है।

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