दार्जिलिंग हिल स्टेशन है बहुत खूबसूरत (यायावरी)

कंचनजंघा की बर्फ से ढ़की विशाल चोटियों के बीच बसे पश्चिम बंगाल  का दार्जिलिंग शहर की वादियाँ बहुत हसीन है। यह हमें वहाँ जाकर पता चला। हम दार्जिलिंग दो बदार्जिलिंग घुमने का मौका तब मिला जब हम गंगटोक से वापस जलपाईगुड़ी आ रहे थे। दिनभर का समय था। ड्राइवर बोला हम आप लोगों को चाय बागान घुमाते हुए जलपाईगुड़ी पँहुचा देंगे। दार्जिलिंग के चाय बागान में सुबह से शाम तक घुमने में आनंद की जो अनुभूति मिली, वह अति विस्मरणीय लगी। पानी की हल्की बूंदाबांदी के बीच सुहाने मौसम में बढ़ती रेंगती सी गाड़ी से चारों तरफ के नजारों का लुफ्त उठाते हुए आगे बढ़ना बहुत सुखदायी था। चाय के हरे-भरे बागानों में अक्सर चाय की पत्तिया चुनती युवतियों की जो फोटो हम कलेंडर या टीवी में देखते आ रहे थे उसे प्रत्यक्ष देखने,भोगने और उनसे बाते करने में बहुत मजा आया। हम अपने गाड़ी से उतरकर चाय की पत्तियाँ तोड़े, युवतियों से ढ़ेर सारी बातें किए और ढ़ेर सारी फोटो खिचवाये। यहीं के सुरम्य वादियों में रविन्द्रनाथ टैगोर के कर्मस्थली उनके घर का भी दर्शन किए।
पहली बार दार्जिलिंग का जो कोना हम घुमें, वहीं इतना  खूबसूरत लगा कि हम पुनः दार्जिलिंग शहर घुमने के लिए दार्जलिंग पहुंच गए। 

दार्जलिंग-----
क्वीन ऑफ हिल्स अर्थात दार्जिलिंग हमेशा से एक बेहतरीन हनीमून डेस्टिनेशन रहा है। यहाँ के खूबसूरत पहाड़ घुमने के उत्साह को दोगुना कर देते है। यहाँ टाइगर हिल की चढ़ाई कर सकते है। इसी के पास कंचनजंघा चोटी है। सबसे ज्यादा आकर्षक यहाँ का सूर्योदय है। यहाँ चाय के बागान और देवदार के जंगल का नजारा बहुत सुन्दर है।

ट्वाय ट्रेन-----खिलौना रेलगाड़ी---
हिमालय का गेट कहे जाने वाले शहर जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग पहुंचने का रास्ता ही बहुत दिलकश और उमंगों से भरने वाला था। हमने दो फीट के नैरो गेज पर छुक-छुक करके दौड़ने वाली हिमालयन ट्रेन ट्वाय ट्रेन पर अपनी बुकिंग ऑनलाइन पहले ही करा ली थी, क्योंकि खिलौना गाड़ी का मजा हमें पूरा दिन लेना ही था। न्यूजलपाईगुड़ी से चलने पर यह सड़क मार्ग से आँखमिचौली करती हुई आगे बढ़ रही थी। कभी यह सड़क मार्ग के साथ चलती थी तो कभी चुपके से गायब हो कर जंगलों में घुस जाती थी। चाय बगानों और प्रकृति के रमणीक नजरों के बीच से गुजराती हुई यह कभी चाय बगानों में तो कभी पहाड़ी गावों और कस्बों से छुकछुक करती अपनी मदमस्त चाल से धीरे-धीरे सरकती हुई 6-7 घंटे में दार्जिलिंग पहुंचायी। भारत में सबसे अधिक उँचाई अर्थात 7407 फीट पर स्थित रेलवे स्टेशन 'घूम' इसी ट्रैक पर था। जो मजा इस ट्रेन पर मिला, उसे हम कभी भूल भी नहीं सकते है।

बेबी सीवॉक का दर्शन-----यहां दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे का संग्रहालय भी देखने को मिला। जिसे सन् 2000से दर्शकों के लिए खोल दिया गया था। 1881 में जिस इंजन 'बेबी सीवॉक' से इस ट्रेन की यात्रा शुरू हुई थी वह भी देखने को मिला। हम इसके कोच के अंदर जाकर भी घुमें थे। यहाँ रेलवे के इतिहास से जुड़ी बहुत सी दुर्लभ चीजें भी देखने को मिली थी।

चौरास्ता---सबसे ज्यादा चहलपहल वाली जगह जिसे दार्जिलिंग का दिल भी कहते है..वह है दार्जिलिंग का दिल- चौरास्ता। यह समतल जमीन जैसा भाग है, जहाँ लोग धूप सेकतें और बर्फीली चोटियों को निहारते हुए भी देख सकते है। यहाँ एक सुंदर उँचा मंच भी है, जहाँ कोई ना कोई सांस्कृतिक गतिविधियां भी होती रहती है। आसपास बहुत से होटल भी है। यहाँ बनी हेरिटेज शाप्स ब्रिटिश औपनिवेशिक दौर की याद दिलाती है।लकड़ी की खूबसूरत नक्काशी से सजी ये दुकाने अभी भी वही पुराना आकर्षण समेटे हुए है।

टाइगर हिल---- यह दार्जिलिंग से 11 किमी दूर है। यह दार्जिलिंग की पहाड़ियों में सबसे उंची चोटी है यहां से सूर्योदय देखना एक अद्भुत अनुभव है। यहां से हिमालय के पूर्वी भाग की चोटियां दिखाई देती है। मौसम साफ होने पर हिमालय की सबसे उँची चोटी माउंट एवरेस्ट  (दूरी 107 मील) भी दिखती है। यहाँ सूर्योदय से कुछ सेकेंड पहले कंचनजंघा की बर्फ से ढकी चोटियों पर सूर्य की लालिमा छाने लगती है। यह मंत्रमुंग्ध कर देता है। टाइगर हिल पर सैलानियों की सुविधा और उन्हें सर्दी से बचाने के लिए एक कवर्ड शेल्टर बिल्डिंग भी बनाई गई है।

घूम मोनेस्ट्री----टाइगर हिल से वापसी में घूम मोनेस्ट्री पड़ा। इस मोनेस्ट्री का निर्माण सन् 1875 में किया गया था। इसमें 15फीट उंची मैत्रैय बुद्ध की मूर्ति विराजमान है। यह तिब्बती बौद्ध का अध्ययन केंद्र भी है। यहाँ महात्मा बुद्ध के समय की कुछ पांडुलिपियां भी संरक्षित है।सुबह ही इस मोनेस्ट्री के बाहर रेलवे लाइन पर भूटिया लोग गर्म कपड़े व अन्य समानों का बाजार लगाते है। यह बाजार सुबह नौ तक ही लगता है, क्योंकि इसके बाद ट्वाय ट्रेन का आना जाना शुरु हो जाता है।

मागढोग योलमोवा मोनेस्ट्री----  मागढोग योलमोवा मोनेस्ट्री बतासिया लूप से थोड़ी दूर पर स्थित है। यह मोनेस्ट्री आलूबारी मोनेस्ट्री के नाम से भी जाना जाता है। यह मोनेस्ट्री बड़ी है, जिसका निर्माण सन् 1914 में हुआ था। इसका संबंध उत्तर-पूर्वी नेपाल से आये नेपाली समुदाय से है। इसकी सजावट बहुत सुंदर है। इसमें बुद्ध और पद्मसंभव की विशाल मूर्तियां है। दीवारों पर खूबसूरत भित्तिचित्र भी बने हुए है। यहां के लोग बताते है कि इनके चित्रों को रंगने के लिए घास और जड़ी-बूटियों से बने रंग का प्रयोग किया गया है।

रोपवे-----चौक से 3 किमी दूर भारत का सबसे पुराना रोपवे दार्जिलिंग में है, जो रंगीत घाटी तक जाती है। जिसे सन् 1856 में शुरु किया गया था। इसे उड़न खटोला भी कहते थे। इसका एक सिरा 7000 फीट की उँचाई पर है, तो दूसरा 800 फीट की उँचाई पर है। इससे नीचे के चाय बगान का विहंगम नजारा तथा दार्जिलिंग के बेहद खूबसूरत पहाड़ों, नदियों और घाटियों के लुभावने दृश्य से मन मयूर नाच उठते है। करीब साढ़े चार किमी की यह यात्रा 45 मिनट में दिल बागबाग कर देता है।

मकाईबाड़ी टी-स्टेट कर्सियांग----दार्जिलिंग में चाय बगान पूरे रास्ते में फैले हुए है, लेकिन सबसे प्रसिद्ध है मकाईबाड़ी टी-स्टेट । यह सिलीगुड़ी से मात्र 30 किमी दूर पहाड़ के दामन में बसे खूबसूरत शहर कर्सियांग में पड़ता है। यहां चाय की खेती आर्गेनिक तरीका से किया जाता है। इसीलिए यहाँ की चाय सबसे मंहगी बिकती है।

पीस पैगोडा---हरे-भरे पहाड़ के बीच में बना एक धवल शांति स्मारक है। यह स्मारक शांति और सौहार्द का प्रतीक है।। यह 94 फीट उँचा है, जिसका व्यास 23 मीटर में फैला हुआ है। इसमें बुद्ध के जीवन-चक्र की चार अवस्थाओं को सोने की पालिश से जगमगाती सुंदर मूर्तियों में उकेरा गया है। इसके अलावा बुद्ध के जीवन से जुड़ी अन्य मुख्य घटनाओं को लकड़ी पर सुंदर नक्काशी के जरिये दिखाया गया है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान के नागासाकी और हिरोशिमा में भीषण परमाणु बम विस्फोट के बाद जापानी बौद्ध भिक्षु निचीदात्सु फूजी ने विश्व भर में शान्ति स्तूपों के निर्माण का संकल्प लिया था। इस संकल्प के तहत उन्होंने यहाँ इसके निर्माण की नींव रखी थी। बाद में इस शांति स्तूप का निर्माण उनके प्रधान शिष्य निप्पोजान म्योहोजी ने सन् 1992 में करवाया। पीस पैगोडा के अहाते से लगा हुआ एक जापानी मंदिर भी है। मुख्य दरवाजे से पैदल चलने के बाद मुख्य मंदिर परिसर में पहुँच जाते है। जापानी बौद्ध मंदिर दो मंजिला भवन में है। जहाँ मुख्य प्रार्थना कक्ष पहली मंजिल पर है। यहां से आती श्लोकों की मधुर ध्वनि पूरे माहौल को अलौकिक बना देती है।

हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट------ हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट एक ऐसी जगह है, जहां पर्वतारोहण से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारियां सहेज कर सुरक्षित रखी गई है। यह संस्थान सन्  1953 में दुनिया की सबसे उँची पर्वत चोटी माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले भारतीय पर्वतारोही तेनजिंग नोर्गे और एडमंड हिलेरी के सम्मान में स्थापित किया गया था यहां एक संग्रहालय और पर्वतारोहण की शिक्षा लेने वाले छात्रों के लिए बोर्डिंग स्कूल भी है। दर्शनीय स्थल तेनजिंग रॉक भी यहीं पर है।

मिनी दार्जिलिंग: मिरिक----- यह दार्जलिंग जिले में स्थित एक अन्य मनोहर हिल स्टेशन है। यह इतना सुंदर है कि यह पर्यटकों को आकर्षित करने लगा है। यहां भीड़ न होने के कारण लोग आसानी से पहुँचने लगे है। इसका भौगोलिक स्थित ही इसे आकर्षक बनाता है। यह समुंद्र तल से 4905 फीट की उँचाई पर स्थित है। जो चाय की ढ़लान वाली पहाड़ियों से घिरा हुआ है। जंगली फूल, सुंदर झील और क्रिप्टोमेरिया जापानिका के पेड़ इसे स्वर्ग सा सुंदर बना देता है।इस कस्बे के बीच एक झील है, जिसे सुमेंदू लेक कहते है। यह  डेढ़ किमी लम्बी है।  इसके किनारे देवदार के उँचे वृक्ष है।  इस झील में बोटिंग और फिशिंग भी किया जा सकता है। इसके बीचोबीच फ्लोटिंग फाउंटेन है। मेरिक बाजार से थोड़ी दूर उचाई  पर एक सुंदर मोनेस्ट्री है।
यहां से कंचनजंघा श्रृंखला के अद्भुत दृश्य दिखाई देता है और सूर्योदय व सूर्यास्त का नजारा भी देखने को मिलता है, जो मन को मोह लेता है।
चाय बगानों की श्रृंखला-----दार्जिलिंग में एक दिन हमलोग चायबागानों के ही चारों तरफ घूमते रहे। गाड़ी रोककर हम बाग के अंदर भी गये। घूमते हुए हमें वे महिलाएं भी मिली, जो चाय बगानों से चाय की पत्तियां चुन रही थी। हमनें उनके साथ फोटोग्राफी भी किए। जो चीजें कलेन्डर में दिखता था, वहां स्वयं खड़े होकर फोटो खिंचवाना भी बहुत अच्छा लगा। चाय बगानों के साथ ही प्राकृतिक सौंदर्य का भी दर्शन हुआ। रविंद्रनाथ टैगोर का विश्राम स्थल भी देखने को मिला। हल्की-हल्की बूंदाबांदी में जितना मजा चाय की चुस्कियों में मिलता है, उससे ज्यादा मजा चाय के बागानों में घुमकर मिला।

दार्जिलिंग के स्वाद-----अंग्रेजों के समय से बसे दार्जिलिंग को निखारा है बंगाली जंमीदारों, नेपालियों और तिब्बती भूटिया लोगों ने। इसलिए यहां के खानपान में सभी वर्गों के स्वाद का मिश्रण मिलता है। अंग्रेजों के समय का बेकिंग शैली अभी भी मौजूद है। बेहतरीन बेकिंग आइटम चखने के लिए ग्लेनरीज बेकरी मशहूर है, जहाँ एपल पाई, चॉकलेट, रौल, कुकीज जरुर चखना चाहिए।
यहाँ बतासिया लूप पर भूटिया लोग बहुत से लोकल फूड का स्टॉल लगाते है। गरमा-गरम सूप के साथ सब्जियों और मीट से बना थुपका अपने आप में पूरा पेट भरने के लिए सक्षम है।
यहां नेपाल के भी कुछ खास स्वाद चखने को मिलेंगे,जैसे- आलूदम, मोमो, आलू मिमी थुपका। यहां के लोग याक के दूध  से बना चीज छुर्सी भी बनाते है। 
चावल से तैयार किया गया लोकल ड़्रिंक तोंगवा भी यही मिलता है। एक छोटी किस्म की लाल मिर्च होती है, जिसे 'डल्ले कोसानी'कहा जाता है। यह बहुत तीखी होती है । स्थानीय लोग यह मानते है कि यह मिर्च गैस की परेशानी से राहत दिलाती है।

कैसे पहुँचे----यहाँ का नजदीकी रेलवे स्टेशन जलपाईगुड़ी और एयरपोर्ट बागडोगर है, जो दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता सहित सभी बड़े शहरों से जुड़ा है।बागडोगरा से दार्जिलिंग 65किमी दूर है।
दार्जिलिंग की यात्रा पूरी करके हम लोग लखनऊ आ गये, पर दिल में बसी दार्जिलिंग जाने की चाहत अभी भी फिर बनी हुई है।

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