टपकते बूंदों में आह्लादित मन (संस्मरण)

झमाझम बरसते पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें जब तन मन को भिगोकर तरबदर करती है, तब वह मुझे अतीत के झरोखों से आती हुई उस  सुनहरे पल की यादों के सुखद अनुभूति में डूबों कर भींगों जाती है, जो बरसात के मौसम में अनजान झोपड़ी के छत से टपकते बूंदों की वजह से कालेज के जमाने में मिली थी, और जिसकी मधुर स्मृति जेहन में आज भी जस की तस सुर्ख गुलाब सी अंकित है। 
नौवीं कक्षा गवर्नमेंट गर्ल्स इण्टर कालेज में पढ़ी, तो पापा के ट्रांसफर के कारण दसवीं में पढ़ने के लिए श्री सिंहेश्वरी इण्टर कालेज में नाम लिखाना पड़ा। यहाँ के बदले कस्बानुमा माहौल में लड़को के साथ पढ़ना…एकदम नया, अजीब पर मजेदार अनुभवों से लबरेज था। नया सेशन शुरु होते ही कालेज आना-जाना शुरु हो गया। कालेज में पूरी छात्राओं की संख्या बहुत कम थी। मैं अपनी कक्षा में अकेली थी। तभी तो कक्षा में मैं सबकी बातें सुनती ज्यादा, पर बोलती कम थी। इसी बीच अनजाने में ही एक सहपाठी के आकर्षक व्यक्तित्व ने मुझे अपनी तरफ आकर्षित कर लिया। अब मेरा ध्यान उसी के इर्दगिर्द केंद्रित रहने लगा अर्थात न देखने पर उसकी राह ताकना, देख लेने पर नजरें चुराना, हरकतों को महसूस करना और बातों पर कान लगाये रखना। ये गतिविधियाँ मैं बड़ी खामोशी और सावधानी से करती, ताकि मन के भाव उजागर न हो जाए।

एकदिन मध्यावकाश के बाद कक्षा में आने पर सुनाई पड़ा," ईर्ष्या तू न गई मेरे मन से"। मैं अचकचाई। क्योंकि यह पाठ सिर्फ मेरे किताब में ही था। किताब खोली तो मुझे उस पर लिखी गाने की दो पंक्तियां दिखी। मेरे एक-दो आर्ट के पन्ने भी गायब थे। मुझे आभास हुआ कि मेरी अनुपस्थिति में किसी ने मेरे किताब-कापी को खंगाला है। तमतमाया चेहरा अध्यापक के सामने फट पड़ा। खोज-खबर लेने पर दो छात्रों का नाम सामने आया। जिसमें एक मेरा प्रिय सहपाठी भी था। पूरी कक्षा के सामने डॉट सुनना भला किसे रुचिकर लगेगा, वो भी तब, जब वह कक्षा का सबसे मेघावी छात्र हो। उसके उतरे और बनते-बिगड़ते चेहरे को देखकर मुझे अपनी हड़बड़ी पर ग्लानि हुई। मैंने तत्काल ही किसी छात्र की शिकायत न करने का संकल्प ले लिया। दिन यूं ही बीतते गया। एकदिन अंग्रेजी की कापी उसके हाथों मुझे मिली तो उस कापी के पहले पेज पर एक फूल अंकित था। उस फूल के एहसास में मैं खो गई, फिर किसी की धरोहर समझ उसे सहेज ली।  

 बरसात के मौसम का एकदिन कालेज में छुट्टी होने का समय था। बदले मौसम में आती जाती घनघोर घटाओं की गरजतड़क तड़तड़ाहट कानों को बेधती हुई दिल की धड़कनें बढ़ा रही थी। भीषण बरसात का डर था। यदि पानी झमाझम बरसा तो घर कैसे पँहुचेंगे? मन की अकुलाहट छुट्टी की घंटी सुनने को बेताब थी। तभी घंटी टनटना गई। पिंजड़े में बंद पक्षियों का झुंड पिंजरें का फाटक खुलने पर अफरातफरी मचाती हुई जिस तरह खुले आकाश में फड़फड़ाती हुई उड़ने को बेताब लगती है, वैसे ही सारे बच्चे अपना बैग समेंटे, हो हल्ला मचाते हुए कक्षा से निकलकर भेड़िया धसान सा फाटक की तरफ भागे। कालेज का मुख्य फाटक बिल्ड़िंग से दूर था।  कालेज मुख्य बस्ती से डेढ़-दो किमी अंदर कंक्रीट सड़क से जुड़ा था। बच्चों का झुंड कालेज से निकल तो गया, पर बेताब बूंदों ने किसी को घर पहुंचने का मौका नहीं दिया। झमाझम बरसात होने लगी। सबकी बौखलाहट बढ़ गई। छिपनें की कोशिश होने लगी। पगडंडी के एक तरफ खेतों में इक्कादुक्का झोपड़ी, तो दूसरे तरफ खेतों के पार रेलवे स्टेशन। जिसको जहाँ जगह मिला, वह वहीं पनाह लेने को मजबूर हो गया। हम 15-20 छात्र-छात्राएं एक खाली झोपड़ी में घुस गये। छोटी सी झोंपड़ी खाली, पर साफ था। फिर भी गोबर की सुगंध नथुड़ों को फुला-पिचका रही थी। मजबूरी में एक दूसरे से सटे-सिमटे भींगते हुए खड़े होने को सभी मजबूर थे। अचानक झोंपडी के छत से भी पानी की बूंदें टपकने लगी। टप-टप टपकती बूंदों के बीच दोस्तों के सामिप्य व सांनिघ्नता में डर से सहमें हुए स्वयं में सिमटने की कोशिश बेकार थी। थोड़ी देर में छात्रों की टिपकारियाँ माहौल को मजेदार व खुशनुमा बनाने लगी। हम भी मंद मंद मुस्कुरा कर मौसम का मजा लेने लगे। अचानक ऐसे माहौल में अपने प्रिय साथी को अपने बहुत करीब पाने और महसूस करने का पहला अनुभव दिल के धड़कनों को बढ़ाने वाला था। घबड़ाहट में नैनों के बाण टकरा ही गये, तो धुकधुकी तेज हो गई, पर मैंने स्वयं को समेट लिया और लाज से सिमटती, संकुचित होते हुए मधुर एहसास में डूबी रही। मैं ही क्यों..वहाँ तो सभी अपने अंदाज में आनंद के रस का रसास्वादन लेने में मस्त थे। करीब आधें घंटे बाद जब पानी थोड़ा कम हुआ तो भीगते हुए हम झोपड़ी से बाहर निकलने को आतुर हुए। उसी समय कोई मुझसे टकरा गया। एक पल को मैं ठिठक गई। पीछे मुड़कर नजर टकराने वाले को देखी तो लाज से दोहरी हो गई। मेरा प्यार.. मेरे इतने करीब। मन आह्लादित होकर पोर-पोर को पुलकित कर गया। मैं अजीब सी तरंगों से तरंगीत व झंकृत हो गई। पर मौका बाहर निकलने का था, तो मैं झटके से बाहर निकल गई। इधर सड़क के लड़के और खेतों के उस पार स्टेशन से निकलने वाले बच्चे भी समवेत स्वर में हो हल्ला मचाने और उछलते-कूदते हुए भागने लगे। पानी अब भी बरस रहा था। मेरे मन की तरंगें अब भी सड़क पर इकट्ठी पानी की लहरों की तरह हिलोरें ले रही थी। मैं मद मस्त सी भींगते हुए और अपने भींगते बैग को बचाने की जद्दोजहद में लम्बे-लम्बे डग भरती हुई घर पँहुच गई। दूसरे दिन भी संकुचित मन की धड़कने तेज थी, बेताब नजरों को काबू में करने और स्थिति को सामान्य करने में थोड़ा समय लगा।

ऐसे ही मन के भावों की आँखमिचौली और उथलपुथल में कालेज का बाकी समय भी बीत गया। एहसास के भंवरजाल में दोनों फँसे थे, पर मन के भावों को हम एक दूसरे तक पहुँचा नहीं पाये, क्योंकि एक अदृश्य लक्ष्मण रेखा हम दोनों के बीच खींची थी, जो अंत तक बरकरार रही।
परीक्षा हुआ। हम फिर बिछुड़ भी गये। बिछुड़ने का वह आखिरी पल भी मेरे जेहन में जस का तस बना हुआ है। पेपर समाप्त होने पर वह मेरे सामने से गुजरा और चलता चला गया। मैं ठिठकी हुई उसे ओझल होने तक अपलक निहारती रही। यही मिलन की आखिरी घड़ी थी।
छुट्टियों में ही पापा के ट्रांसफर के कारण कालेज क्या छूटा, साथी भी छूट गया। बचपन के प्रेम पर मर्यादा का मूक आवरण चढ़ा ही रह गया। मुझे  न अता, न पता, न उसके रहने का ठौर-ठिकाना ज्ञात था। बस दिल में मधुर स्मृतियों की सूक्ष्म छाप ही शेष थी।
बचपन के बचपना में किए गए प्रेम के अनुभूति की पैठ बहुत गहरी थी। जो दिल की गहराईयों से निकलती नहीं। आज उम्र के इस पड़ाव पर संतुष्ट हूँ कि प्यार सिर्फ पाने की पीड़ा नहीं होती। यह तो बिछुड़ने के बाद की वह खूबसूरती है, जो हर थोड़े अंतराल के बाद मधुर झोंकों के रुप में थपथपाती, गुदगुदाती व सुधबुध हरती हुई मेरे उद्विग्न-उद्वेलित मन को अपने आगोश में छुपा लेती है। फिर उस पल को जीवंत करने का मौका देती है, जो पल प्रेममय सुखद एहसासों से पूर्ण था।
'हमारी नजरों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है।'
यही जीवन चक्र है, जो वर्तमान में रहते हुए अतीत को आगोश में छुपाये हुए भविष्य की ओर कदम बढ़ाता है।

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