शिद्दतें बहुत हो गई, मुस्कुराते हुए,
दोस्तों को गले से लगाये हुए।
कभी यहाँ सिर्फ हँसी बसती थी,
लोग मिलते, गुनगुनाते व चहकते थे।
बच्चों के कोलाहल धरा बेधती थी,
नन्हों की किलकारियों से घर गूँजता था।
मिलजुल कर टहलते व व्यायाम करते,
फिर गप्पें व चिड़ियों की चहचहाहट में रम जाते।
फूल खिलते थे तितलियों की उड़ान से,
भौरें मड़राते थे फूलों के मुस्कान पर।
पेड़-पौधे भी हिलते और गुनगुनाते थे,
अपनी ठंडी हवा से मस्त माहौल बनाते।
पत्तियों की सरसराहट मधुर रागिनी सुनाती,
फूलों की सुगंध फिजा की रौनक बढ़ाती।
वही सारी गलियाँ, चौबारे और आशियाने,
आज भी अस्तित्व में है वैसे ही चारों तरफ।
लेकिन लोग भयभीत होकर घर के कोनों में छिपे है,
इसलिए उनकी खुशियां अंदर सिमट सी गई है।
कोरोना ने अपना कहर क्या बरपाया,
सारा आलम सूना और विरान कर दिया है।
स्कूल-कालेज ट्रेन-बस सब बंद हो गए है,
बाजार, मॉल, व पार्क गम के आँसू बहा रही है।
अकेला होना कोरोना को भगाना हो सकता है,
इसलिए हम नितांत खामोश व विवश हो गये है।
सब कुछ वही है, जो था पास हमारे,
फिर भी फिजा खामोश व विरान हो गयी है।
चुपचाप मुँह छुपाये परेशान है वादियां,
तभी तो आँसुओं के सैलाब में बह रही है दुनिया।
हम तन्हा अकेले चले व बढ़े जा रहे है,
अपने चारों तरफ की रंगीन संमा को ढ़ूढ़ रहे है।
सबके लिए संबल और सहारा बनकर उभरना है,
इसलिए अब हमें यूं खामोश नहीं बैठना है।
आओ, हम इस माहौल को बदलने की सोचे,
एक होकर कुछ सोचने और करने का बीड़ा उठायें।
एक बार कोरोना को पछाड़कर जीवंत हो जाए,
स्वार्थ को छोड़ दे, पर्यावरण संरक्षण से नाता बढ़ाये।
बगिया लगाये और पेड़ पौधे उगाये,
हरियाली को अपना उद्देश्य बना ले।
फिर सबको बटोरें और संगठित हो जाये,
मानव अस्तित्व का बंधन जो स्वार्थ से परे हो, उभारें ।
मिलकर हँसे-खिलखिलायें और साथ निबाहें,
फिर चारों तरफ खुशियां ही खुशियां फैलायें।
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