कोरोनाकाल की होली (व्यंग्य)

ये कोरोना महामारी होली के हुड़दंग के पहले ही क्यों अपना बवाल मचाकर होली के रंग में भंग डालता है। क्या इसे लोगों की मस्ती के रंग में डूबना व उतराना बिच्छू जैसा डंक मारता है। तभी तो होली के आगमन के ऐन मौके पर ही यह सुरसा की तरह मुँह बाकर लोगों के दिलों में डट जाती या उनके शरीर में आकर धमक जाती है, फिर देश में, समाज में अपना वीभत्स रुप दिखाने के लिए ताण्डव करने लगती है। पहले यह लोगों को डराकर अपने जाल में फँसाने के लिए चुपके से दस्तक देती है, फिर अपनी पैठ एक शरीर में बना लेती है। एक के बाद यह दूसरे और तीसरे शरीर में भी पँहुचने का दम्भ भरने लगती है।
वैसे एक के शरीर से दूसरे के शरीर में पँहुचने के लिए इसे भी अधिक मसक्कत करनी पड़ती है, क्योंकि जो सावधान रहते है, उनके पास यह फटकती और उन्हें यह छूती भी नहीं है, पर जो लापरवाही के आलम में थोड़ा भी डूबते-उतराते है, उन्हें वह अपने दामन में जकड़ लेती है। पिछले साल दुनिया को तबाही के राह में ढ़केलने के बाद भी इसे सुकून व शांति नहीं मिली, जो एक जगह सिमटकर जम जायें। तभी तो चली आई है, झुनझुने सी ठुमकती-मचलती बिन बुलाये मेहमान की तरह। होली के आकर्षक मौसम में, होली के रंग में भंग डालने होली से ठीक पहले यह फिर आ धमकी और पसरी है।
 कितने प्रयास हो रहे है..इसे भगाने, खदेड़ने और चारों खाने चित्त करने के लिए। मुँह पर मास्क चिपकाएं, पीपी कीट पहने, दो गज की दूरी बनाये, बार-बार हाथ को साबुन से रगड़-रगड़कर दुबला कर दिए, लॉकडाउन होकर स्वयं को घर में कैद करके योग विद्या में घुसकर पालन भी करने लगे, पर इस मुई को इतनी तबाही के बाद भी चैन नहीं मिला। चली आई फिर अपने ताम-झाम और दुश्वारियों के साथ अपना नंगा डरावना नाच दिखाने के लिए।
कोरोना महामारी क्या आया..पूरे होली का मस्ती ही ले डूबा। पार्क में दोस्तों संग मस्ती की फुहार, गुझियों की मिठास, रंग-बिरंगें रंगों की बौछार..जीभ पर  लपलपाते हुए स्वाद के लिए मचलते दिल में उत्साह और उमंग की कमी चारों तरफ दिख रही है। कुछ लोग मन मसोसकर बैठे है कि फीकी ही सही, पर होली के रंग से अपने गुलाबी गाल को थोड़ा बहुत ही सही रंगीन तो करेंगे ही। भले ही होली के हुडदंग व अफरातफरी थोड़े थमें हुए क्यों न हो?
पर मेरी बात और है। मैं जोश, उमंग व उत्साह से पूरी तरह लबरेज बहादुर युवा जो ठहरा। खुशियाँ मेरे अंग-अंग से टपक  रही थी। मुझे कोई डर अपने बंधन में जकड़ नहीं सकती थी, इसलिए कोरोना की ऐसी की तैसी करके मैं मदमस्त हो गया। मैंने ठान लिया कि सालियों और भौजाइयों की खट्टी मीठी नोंकझोंक की गूँज से अपनी होली रंगीन करुंगा ही, साथ में भर-भर पिचकारी के रंगीन रंगों की बरसात करके सबको सराबोर भी करुंगा...इसी मीठे सपनों में रमा हुआ मन ही मन गुलछर्रों की बौछार करने के लिए सावधानियों की धत्ता बजाते हुए निर्भीक हीरो की तरह बेखौफ बिना मास्क लगाये, दो गज की दूरी को भूलकर इस बाजार से उस बाजार टहलता और धड़ामचौकड़ी मचाता ही रहा। घर आकर हाथ धुलने की गुस्ताखी भी नहीं किए। होली की तैयारियों में कुछ भी नहीं छोड़ा- सबके नये कपड़े बनवाये,श्रृंगार की सामग्री भी खरीदे। पकवानों के लिए रच-रचकर सामग्री इकट्ठा किए। और गर्व से इतराते हुए घर आ गये।
पर वाह रे कोरोना महामारी। कोरोना को मेरी इतनी हेकड़ी रास नहीं आई। वह हमसे भी तेज थी, इसलिए बदले की भावना से लबरेज होकर अचानक मेरी सभी तैयारियों को अंगूठा दिखाती होली से पहले ही मुझ पर आक्रमण करके मुझे दबोच लिया। घर में अफरातफरी मच गई। लोग कोरोना के कारण मुझ बेबस-लाचार को ले जाकर कोरोना अस्पताल के एक बिस्तर पर पटककर अकेला छोड़ दिया और मुड़कर भी नहीं देखा।। मन के रंगीन सपनें फुर्र हो गये। साल भर इंतजारी के बाद आया रंग-बिरंगी होली बेजान हो गई। कोरोना बीमारी के मायाजाल में फँसने के कारण नितांत अकेला पड़ गया । होली के दिन के मन में फूटने वाले लड्डू मन में ही फूटकर चारों तरफ बिखर गये।
शुक्र है होली के दो दिन पहले ही घर आ गया और कोरेंनटाइन कर दिया। मेरे कमरे में आने की सबको मनाही थी, पर मैं दूर से ही होली को रंगीन होते सबके चेहरे पर देख रहा था। सब नख से शिख तक रंगों से सराबोर थे। चटकारे ले लेकर खाते पकवानों की खुशबू मेरे नथुनों को फुला-पिचका रही थी। सबकी होली रंगीन थी, पर मेरी एकदम फीकी व नीरस थी।
वाह रे होली की मस्ती का रंगीन सपना। लापरवाही की ऐसी भारी मार पड़ेगी, इसका सपनें में भी हल्का आभास नहीं था कि सर मस्ती के बजाय कोरोना बीमारी के कारण चकराने, झूमने और नाचने लगेगा। अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत। इसीलिए कहते है मस्ती और उमंगों में डूबों, पर ऐसा न डूबों कि लेने के बजाय देना पड़ जाये...मेरी तरह।
आप लोग होली में स्वस्थ्य रहे, प्रसन्नचित्त रहे और होली के रंगों से सराबोर होकर जोर से चिल्लाये...होली का त्यौहार मंगलमय हो...हैप्पी होली।
 

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