रंग-बिरंगी होली के मादकता में चकरघिन्नी की तरह नाचता यह बौराया बावला मन अब कोरोनाकाल के महामारी में भय, दुख, पीड़ा, उलझन व आक्रोश से युक्त मजबूरियों के मकड़जाल में फँसा हुआ मधुमक्खी सा बिलबिला रहा है। पहले होली के क्या रंगीन दिन थे? सालियों के मादकता से यौवन भरे चुहलबाजी का रसपान करते हुए कितने आंनद की अनुभूति होती थी। सालों के साथ मिलकर मुहल्ले की छोरों-छोरियों पर नजर टिकाएं बैठे घंटो समय गुजार देते थे। ऐसे में कोई रोकने-टोकने वाला नहीं मिलता। खूब रसभरी का आनंद लेता था। यदि भूले-बिसरें से कोई टोक भी देता,"अरे यार, कितनी मस्ती में चूर हो? अभी से इतनी जल्दी भांग चढ़ा लिए हो क्या?" तब ऐसे समय में कितनी सरलता से हँसकर खीसें निपोरते हुए बात टालकर कह देते थे,"अरे भाई, होली का मस्ती भरा रंगीन त्यौहार है। होली कोई रोज-रोज थोड़े आती है। फिर ऐसा मौका कब नसीब होगा?"
पर ऐसे में मुझे सूंघती-सांघती, रंग में भंग डालती श्रीमती जी हर समय सीने पर मूंग की दाल पिसती अपनी मोटी (गुस्से में कहा गया संबोधन) सूरत लिए सामने प्रकट हो जाती। कितनी भी नजरें बचाने की कोशिश करता, पर चोरी पकड़ ही ली जाती। फिर सर पर गुम्बद फुलाना व एक समय का उपवास मेरी मजबूरी बन जाती। हाँ भाई, जब श्रीमती जी मेहरबान होंगी ही नहीं, तो भूखे चूहे को दाना-पानी देगा कौन?
ऐसे में टसूएं बहाने के सिवा बचता ही क्या है, पर मैं भी जनम का ढ़ीठ व कमीना जो हूँ। मुझे लाज तो आती नहीं, इसलिए बहाना मिल जाता था साली के घर जम जाने के लिए। भूखे को दानापानी का गुहार लगाते पँहुच जाता किसी साली के घर, तो साली की हमदर्दी के साथ ही हँसी-ठिठोली में समय गुजारने का मौका रसगुल्ले की तरह मुलायम व गुदगुदाने वाली लगती थी। अरे यार, बीवी का डर तो मन के कोने में बैठा मुझे झाडू मारने वाले अंदाज में आगाह तो कर ही रहा था। पर मैं उसके खोदने वाली टीसों को परे ढ़केलकर अपने ही मौज-मस्ती में डूबा अठखेलियों में लोटपोट रहा था। घर जाकर जो डंडे बरसेंगे, उसे इस मस्ती के बदले में सह लूंगा। इसलिए आज बीवी की ऐसी की तैसी। बीवी तो रोज अपनी है..वासी है। पर साली को तो बस होली तक ही अपनी रसभरी जायदाद समझना है। क्योंकि इस मस्ती भरे माहौल में कुछ पल की मस्ती जायज होती है।
पर इस कोरोना महामारी ने तो सारा मजा ही गुड़गोबर कर दिया है। वह दिलेरपने वाली होली की मस्ती अतीत के सुहाने सपनें में तब्दील हो गई है। अब तो मुँह पर टाट की पट्टी चिपकाएं सालियाँ एक मीटर की दूरी को कम करने का नाम ही नहीं लेती है। यह दूरी चुपके से कम करने का हल्का भी प्रयास करो तो वे सजगतापूर्वक जोर से चिल्ला पड़ती है,"अरे रे रे... जीजा जी, दो कदमों की दूरी, रखना है बहुत जरुरी। वरना कोरोना के महामारी में, मरना पड़ जायेगा बखूबी।"
अभी मैं सम्भल भी नहीं पाता कि बीवी का बेलन मुंड़ी पर अपना प्रसाद दे चुकी होती है। मैं पीड़ा से कराहने की बेला में भी मुँह दबाकर सिर पकड़कर धम्म से बैठ जाता हूँ। मेरी रोनी सूरत पर सबका खिलखिलाना बहुत भारी लगता है। फिर मैं बहाने बनाकर आशिक मन को राहत पँहुचाने के लिए दूसरे साली की सांकल खटखटाने पँहुच जाता हूँ दूसरे साली के घर। सालियों का कोई अकाल तो नहीं पड़ा है। गली-मुहल्ले हर जगह साली-भौजी मिल जाएंगी। देखे बीवी कहाँ-कहाँ पँहुचती है। ऐसे में बीवी से भी आँखमिचौली खेलने में मजा ही आता था। वह डाल-डाल तो मैं पात-पात। क्योंकि मैं भी खानदानी नामी गुंडा हूँ। इतनी जल्दी हार मानने वालों में नहीं हूँ।
पर वाह रे कोरोना महामारी का वीभत्स रुप। सारा होली का रंगीन गुलछर्रों वाले मस्ती का गुड़गोबर ही करके मेरी पलीदी निकाल दी है। बीवी की सख्त चेतावनी है कि होली तक घर से बाहर पैर निकाला, तो हड्डी-पसली एक कर दूंगी। कोरोना तो एक बहाना है, बीवी को अवसर मिला सुहाना है। अब मैं, न हँसने में हूँ, न रोने में हूँ...बस मुँह पर मास्क लगाकर घर के कोने में दुबका बैठा सिसकियाँ भर रहा हूँ।
वाह रे, इस बार की होली। न पिछले बार पिंड छोड़ा और न इस बार छोड़ने का इरादा है। कभी-कभी मन में ये ख्याल आता है कि खतरा किससे ज्यादा है-- बीवी से या कोरोना से। क्योंकि ये दोनों होली के त्यौहार में रंग में भंग डालने की होड़ में एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए डंड़ बैठक करने पर तुली है।
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