काम करते हुए रमिया के हाथ अचानक रुक गये। उसकी उत्सुक छुपी निगाहें झटके से उधर अटक गई, जहाँ शीलू दीदी अपनी मौसी और उनकी बेटी पूजा के साथ हँसी-ठिठोली लगाने में व्यस्त थी। रमिया अपनी जिज्ञासा दबा नहीं पाई। वह मन ही मन में उस मस्ती भरे जादू की छोटी सी शीशी के आकर्षण में डूबे लोगों को देखकर बहुत उत्तेजित हो रही थी, जिसे पूजा दीदी शीलू दीदी के लिए उपहार में लायी थी।
शीशी में न जाने ऐसा कौन सा आकर्षण भरा था, जिसे फुस्सफुसा कर निकालते और हथेलियों पर लगाकर, सुँघते और दूसरे को सुघाँते हुए मदमस्त हो रहे थे।
हँसी-फौहारों के बीच रमिया की भी उत्सुकता हिलोरें मारने लगी, सारा ध्यान उन लोगों पर केंद्रित होने के वाबजूद कहीं कोई उसकी चोरी न पकड़ ले, यह सोचकर वह अपने काम में व्यस्त होने का दिखावा भी करती रही। रमिया शीलू की हमउम्र गाँव की वह छोरी थी। जो पहली बार शहर के चकाचक माहौल में अपने को अभ्यस्त करने की कोशिश करती।
रमिया उम्र के उस नाजुक दहलीज पर कदम बढ़ा चुकी थी, जहाँ उमंग-उत्साह व उत्तेजना में बहना आम बात होती है। रमिया की चाहत भरी नजरें शीशी पर टिककर सोचने लगी,' वाह,बहुत मजेदार चीज है, काश मुझे भी मिल जाता, सुंधने और मस्ती मारने के लिए।' रमिया की भावनाएं मन ही मन में गोता लगाने लगी। वह शीशी को हाथ में लेकर उसके मजेदार चीज को हथेली पर लगाकर सुंघना चाह रही थी। पर नयी-नयी कामवाली होने के कारण वह मन मारकर रह गई। उसकी अधुरी चाहत उसके मन में दबकर कहीं छुप गई।
रमिया को सालभर हो गया था शीलू के घर काम करते हुए। अब वह शीलू और उनकी मम्मी-पापा सबकी चहेती बन चुकी थी।
रमिया की शादी तय हो गई। अगले महीने उसकी शादी थी। वह शादी के ख्यालों में डूबती-उतराती उमंग-उत्साह से लबरेज रहती। एकदिन काम करते हुए उसकी निगाह शीलू पर पड़ी, जो पूजा से हँस-हँसकर बाते कर रही थी। अचानक शीलू जोर से चिल्लाई," अरे,पूजा दीदी, आप कल आ रही है। ठीक है, फिर तो बहुत मजा आयेगा।"
पूजा आ रही है। यह सुनकर रमिया के कान खड़े हो गये। वह अविलम्ब झटके से काम छोड़कर शीलू के पास मौन-मूर्ति सी खड़ी हो गई। शीलू को अटपटा लगा। वह फोन पर हाथ रखकर उसे घूरने लगी, तो रमिया बोली," शीलू दीदी, पूजा दीदी आ रही है तो आप उनसे कहकर फुसफुसवाँ की एक शीशी मेरे लिए भी मँगवा लीजिएगा।"
" फुसफुसवाँ की कैसी शीशी?" शीलू आश्चर्यचकित होकर बोली।
"अरे वही, जो पूजा दीदी आपके लिए पिछले साल उपहार में लायी थी।"
"ओह, तो इत्र की शीशी चाहिए तुझे। लेकिन तू उसको लेकर क्या करेगी?" घोर आश्चर्य में डूबी शीलू बोली।
"करुंगी क्यों नहीं? अरे मैं उसे अपने कलुआ को भेंट में दूंगी। फिर उसके सुँघने का मजा दोनों साथ-साथ लेंगे।" यह कहती हुई लजाती-सिमटती रमिया आँचल में मुँह छुपाकर वहाँ से भाग गई। शीलू विस्मय से उसके अल्हड़पने वाली हरकत को एकटक देखती रही, फिर खिलखिला कर जोर से हँस पड़ी।
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