प्रकृति के अनजान पहलू में भटकना और रमना..मेरी आदत व जुनून है। कहीं भी-कभी भी जब सुंदर फूल-पत्ती,पेड़, कैक्टस, तालाब,नदी-नाले, झरने, खेत-खलिहान या कच्चे-पक्के मकान मुझे दिखते और आकर्षित करते है, तो ठिठकती हुई उन्हें निहारने में ही, मैं अपनी सुधि-बुधि खो देती हूँ। पहाड़ों की उँची-उँची चोटियों या उनके मनोहर दृश्य की क्या कहू... छोटा, मनभावन रंग-बिरंगा या चितकबरा गोल पत्थर भी यदि कहीं मेरा मन मोह लें, तो मैं उसे जमीन से उठाकर अपने आंचल में समेट कर सुरक्षित घर पँहुचा देती हूँ। मेरे पास ढ़ेरों चीड़ का फल, सीप, घोंघें और कौड़ी तथा पंक्षियों के पंखों में मोर का पंख, नीलकण्ठ का पंख, और सफेद उल्लू का पंख सुरक्षित है, जिन्हें मैं कहीं ना कहीं से अनाधिकृत रुप से एकत्र करके ही संजोयी हूँ। प्रकृति के इस अनूठे लगाव से ही मुझे हरपल जीवंत रहने की सीख मिलती है।
बाहर की कौन कहे, मैं तो जब घर में भी रहती हूँ, तब भी बाहर मुंड़ेर पर रखे दाने को चुगती चिड़यों की चहचहाहट और उनका फुदकना...मुझे बहुत भला लगता है और फिर जब उन दानों पर कबुतर और कौए भी उड़ते हुए आकर अपना एकाधिकार जमाने की कोशिश करने लगते है, तब भी इनका आपस में जुड़ना व जूझना अच्छा लगता है। बुलबुल भी बिजली के तारों और पेड़ों पर जोड़ों में इठलाती और चहकती है, तो बहुत भली लगती है। सब्जी काटते हुए इन्हें निहारनें में जो समय बीतता है, वह मुझे जायज और आत्मविभोर करने वाला लगता है।
जीवन में सबसे सुखदायी पल मेरा तब था, जब मेरे आँगन में दो बार कबुतरों ने और रसोईघर की खिड़की पर पांच-छः बार गौरैयों ने अपना ठिकाना बनाकर अण्डा दिया। एक-एक तिनके को चुनना, घोंसला बनाना, अण्डों का आना, फिर अण्डों से नन्हें पक्षी बनना, फिर उनका नन्हें पंखों से उड़ना सीखना और बड़े होने पर घोंसला को छोड़कर कहीं और बस जाना...एक लम्बें पल की जीवन्तता थी, जिसके विभिन्न रुपों का इस प्रकार झेलना बहुत सुखदायी था। रोटी सेंकते हुए जो चावल के दाने और आटे की गोलियाँ जिन्हें मैं जमीन पर और अपने हाथ पर रखती थी, तब उन्हीं दानों को चुगती हुई गौरैया जब मेरे हाथों पर से मेरे करीब आ जाती थी, तो दिल में जिस गुदगुदी का आभास होता... वह बहुत ही निराला लगता था।
सफर कहीं का भी हो, मुझे रात्रि में या दिन में भी सोते हुए या पत्रिका पढ़ते हुए गंतव्य स्थल पर पँहुचना बिलकुल भाता नहीं है। सफर में खिड़की की सीट न मिले, तो मन उदासियों व मायूसियों से भर जाता है। बुझे मन से इधर-उधर दूसरे की खुली खिड़की से कौतूहलवश बाहर झांकने व निहारने का असफल प्रयास करना, वो खुशी नहीं दे पाता जिसकी मुझे चाहत होती थी। तब अधूरी चाहत को दिल में समेटे हुए ही सफर पूरा करना पड़ता था। दिन का सफर हो और खिड़की वाली सीट मिल जाएं तो क्या कहना। दिल बल्ले-बल्ले होकर नाचने हुए सफर के आंनद में डूब जाता है।
सफर में नीलकण्ठ को निहारना बहुत बड़ी खुशी, संतुष्टि और जीवंत करने वाला लगता है। बिजली के तार पर बैठा हुआ नीलकण्ठ, उड़ता और कलाबाजियाँ करता हुआ नीलकण्ठ स्वर्णिम सुख देने वाला होता है। रास्ते में मोर, मोरों का झुंड, नीलगाय और बहुत से जानवर दिखते है। तालाब में नहाते भैंस और तैरते हुए बत्तख बहुत प्यारे लगते है।
कतार में लगे पेड़ों का झुंड, जंगल और ईट के भट्ठे भी बहुत उत्साहित करते है। चाँद या सूरज को विभिन्न कोणों से निहारना अच्छा लगता है, पर यदि सूर्योदय, सूर्यास्त के साथ पूनम के चाँद का दीदार हो जाये तो सफर बहुत आनंदित करता है।
देशाटन के उत्तम पलों में कई ऐसे दिलचस्प व अनोखे पल मिले, जो एकांत पलों में अक्सर मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते है। ये पल हैः अण्डमान- निकोबार द्वीप समूह में हैलवाक बीच जाते समय समुंद्र की लहरों को निहारना, भूटान-सिक्किम के उँचें गगनचुंबी पहाड़ों और नजारों को महसूस करना, मेघालय-दार्जिलिंग के उमड़ते-घुमड़ते बादलों के बीच का रौनक, हिमाचल का सफेद बर्फ वाले पहाड़ों की चोटियाँ, अलमोड़ा जाते समय दो पहाड़ों को जोड़ती हुई एक ही साथ दो इंद्रधनुष का विहंगम दृश्य देखना, प्रयागराज में संगम के शाम की सुरमई बेला में लाखों पक्षियों का एक साथ चहचहाते हुए गुंजायमान करना और कालका स्टेशन पर बहुत सी मैनाओं का एक साथ सोने के जगह के लिए कलवर करते हुए भीड़ना...यादगार लम्हों में से एक है, जो अक्सर दिल को उमड़ती-घुमड़ती हुई आनंदित करती रहती है।
प्रकृति के साहचर्य व सांनिध्नता में अजब-गजब उत्साहित करने वाली खुशी सिर्फ मुझे ही नहीं, बल्कि बहुतों के दिल को कुदेरती व हिलोरें लेती हुई मिलती है..पर यह उन्हीं को महसूस होती है, जिनके दिल में इन अनुभूतियों को खुशी मन से स्वीकार करने का जज्बा होता है...। अतः प्रकृति के साहचर्य व सांनिध्नता रहकर जिंदगी को रंगीन बनाना भी...जीवन को जीवंत करने की एक कला है।
प्रकृति के आगोश में एक बार समाकर तो देखो...जीवन बहुत सुखदायी और जीवंत लगता है।
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