अपने घर-गाँव से दूर दूसरे शहर में रहने वाले बच्चों को अक्सर ये शिकायत होती है कि उनके माँ-बाप अक्सर उनके घर ज्यादा दिन रुकना नहीं चाहते है और यदि रहते भी है तो वे उनके उल्लासपूर्ण वातावरण में पूर्ण रुप से वैसे संतुष्ट या खुश नहीं रह पाते है, जैसे वे अपने शहर में रहते थे। जबकि बच्चे उन्हें बड़े आदरभाव से अपने पास रखना चाहते है। बहुत से युवाओं को अपने माँ-बाप से अटूट लगाव होता है। इस दूरी को कम करने के लिए ही वे उन्हें अपने पास, अपनी नौकरी वाले शहर में रखना चाहते है लेकिन अपने घर-गाँव से मानसिक रुप से बँधें होने के कारण उनके बुजुर्ग स्वेच्छापूर्वक उनके पास रहना नहीं चाहते है। ऐसे में बच्चे भी अपने बुजुर्गों की परेशानी व मर्म को जब समझ नहीं पाते है। तब वे भी पशोपेश में पड़ जाते है। उन्हें यही लगता है कि जब वे सारी सुख-सुविधा अपने माँ-बाप को बैठे-बैठाये दे रहे है, फिर उनका इस तरह उदास व अनिच्छापूर्वक रहना या रहने की मजबूरी क्या हो सकती है? ऐसे माँ-बाप तो उन बुजुर्गों से अधिक भाग्यशाली है, जिनके बच्चे उन्हें पूछते नहीं है। फिर वे अपने को मजबूर व दुखी क्यों समझने लगते है?
यह प्रश्न जटिल है। इसलिए इसे समझना बहुत जरुरी है। क्योंकि यह दो पीढ़ी के सोच-समझ और विचारों के अंतर को उजागर करता है। अतः दोनों पक्षों का मर्म समझना जरुरी है।
नया युवा वर्ग आधुनिकता के नये दौर में आगे बढ़ना और विकसित होना चाहता है, जो पुराने, पारम्पारिक रुप से अपने पुराने ख्यालों में बँधे और उससे न डिगने वाले बुजुर्गों से मेल नहीं खाता है। तब ऐसे में जब दोनों मनमानी और अपने मनमाफिक करने पर आतुर हो जाते है, तभी टकराव की स्थिति उत्पन्न होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
जैसे सिक्के के दो पहलू होते है, वैसे ही युवाओं व बुजुर्गों की भी अपनी- अपनी सोच, सिद्धांत या मिलकियत का अपना पहलू होता है, जो गाहेबगाहे एक दूसरे से मेल नहीं खाता है। तब जिंदगी के इसी पहलू या कटू सत्य को दोनों को समझना पड़ता है। यदि दोनों में समझदारी है, तो जीवन सुगमता से आगे बढ़ता है और यदि वे समझदारी नहीं दिखाते है, तभी उनमें साथ रहने के बावजूद भी टकराव की स्थिति पैदा होती है।
आज जो बुजुर्ग है, वहीं कल के युवा थे। अतः अपने समय में अपने उपर पड़ने वाले दुर्गम व दुरुह मुसीबतों व कठिनाइयों को स्वयं के विवेक व निर्णय के आधार पर झेलने और हल करने के कारण, जो उनका सोच व सिद्धांत बनता है...वहीं उनकी पूंजी होती है। अतः उम्र के ढ़लान पर जब बच्चे उनके सोच व अधिकारों पर अपना अधिपत्य जमाने की कोशिश करते है, और उन्हें उनके विचारों से दूर करना चाहते है, तभी उन दो पीढियों के बीच टकराव की नींव बनने लगती है। बुजुर्गों को अनाड़ी, या नासमझ समझने की भूल जब बच्चे करते है..और गाहेबगाहे यह टिप्पणी सुनाते है कि आपको कोई समझ नहीं है, तब बुजुर्गों के दिल के जो टुकड़े होते है...फिर उन्हीं टुकड़ों के चुभन से उनका दिल तार-तार हो जाता है। ऐसे में सशक्त होते हुए भी वे स्वयं को लुटे-पीटे मजबूर और अशक्त समझने लगते है। यह उनके लिए असहनीय, दुखदायी पल होता है। जीवन का यही पल उन्हें निराशा के आगोश में ढ़केलने लगता है। तब वे डिप्रेशन के शिकार होने लगते है।
ऐसी परिस्थिति में अपने-अपने दायरे में बँधें दो पीढ़ियों के कश्मकश को समझना आज के युग में जरुरी हो गया है। जहाँ एक प्रगति के पथ पर तेज गति से बढ़ने वाला, झटपट निर्णय लेने वाला तेजतर्रार जागरूक युवा होता है, वहीं दूसरी तरफ उँच-नीच के खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरने वाला ठोस बुनियादी सोच रखनेवाला बुजुर्ग होता है, जो अपने टोका-टोकी वाले व्यवहार को बदलना नहीं चाहते। क्योंकि अपने अनुभवों के आधार पर उन्हें जो सही व उचित लगता है, वही सीख वे बच्चों के सामने परोसना और बच्चों को उसी राह पर चलने के लिए दबाव डालना, उनका शगल होता है, इसलिए जब वे अपनी जिह्वा खोलते है, तब आधुनिकता के रंग में रंगें नयी पीढ़ी को मिर्ची लगना अनिवार्य है। क्योंकि आधुनिकता के रंग में रमे बच्चे उस रास्ते पर जाना ही नहीं चाहते जिसपर उनके बुजुर्ग चलकर अपना जीवन यापन कर चुके है। बच्चों को अपने बुजुर्ग दकियानूस लगते है। सोच का यहीं नया दायरा दोनों के बीच मिलते हुए प्यार की मिठास में खट्टेपन की बिसात बिछाना शुरु कर देता है। तब गतिशील जिंदगी मात खायें जुआड़ी की तरह सिकुड़कर रह जाता है। परिणामस्वरूप उनके दिल की दूरी, उनके बीच की खाई बन जाती है।
बच्चे भी बुजुर्गों के मन की व्यथा को समझना नहीं चाहते है, क्योंकि बुजुर्गों का कुछ समझाना, टोकना...उन्हें अपने राह में रुकावट पैदा करना लगता है।
अधिकतर बुजुर्गों के पास जो विकल्प होता है.. वह बच्चों के हित का ही होता है, पर नयेपन के एहसास में डूबे बच्चे या युवा अपने बुजुर्गों के मर्म को समझना या मानना ही नहीं चाहते है। वे स्वयं को उस उलझन को समझने में पूर्ण रुप से असमर्थ व असफल महसूस करते है, जिसका अनुभव उनके अभिभावक के पास होता है। और बुजुर्ग अपनी पुरानी सोच व ठोस सोच को बदलना नहीं चाहते, तभी तो छलांग लगाते बच्चों के सोच को वे अपने टोका-टोकी से उसपर पाबंदी लगाना चाहते है। सही अर्थो व सही तरीका से समझा न पाने के कारण उनके सही होते हुए भी उनके नासमझ बच्चे उसे अपने राह की रुकावट समझने लगते है।
अपने घर या गाँव में एक ही जगह या दिनचर्या में समय गुजारना जिस प्रकार बुजुर्गो के लिए सरल होता है, वैसी सुविधा उन्हें स्थान परिवर्तन करके बच्चों के पास जाने में तुरंत नहीं मिल पाता है। और बच्चे, जो स्वतंत्र वातावरण में स्वच्छंद रहना चाहते है, उन्हें बंधन युक्त माहौल रास नहीं आता, पर सामंजस्य बैठाना ही एकमात्र ऐसा विकल्प है जो दोनों के सोच और तालमेल को एकसूत्र में बाँधकर एक सीध में ला सकता है। युवा बुजुर्गों को समझे और बुजुर्ग युवाओं को समझे तभी अपने अपने संकल्पों से हटकर एक हँसी-खुशी का माहौल पनप पायेगा।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस परिवार में दो-तीन पीढ़ियाँ एक साथ एक छत के नीचे रह रही है...वहाँ अपनी मनमानी चलाने से सिर्फ परिवार की एकजुटता में सेंध ही लगेगी। इसलिए परिवार की एकजुटता के लिए एक दूसरे की भावनाओं को सम्मानपूर्वक समर्थन देने से ही स्नेह, विश्वास, सामंजस्यता की नींव पड़ेगी और परिवार आदर्श परिवार की तरह हँसते-मुस्कुराते हुए स्वच्छ व सकारात्मक वातावरण में आगे बढ़ते हुए उन्नति की ओर अग्रसर होगा। इसलिए वैचारिक विभिन्नता को छोड़कर सामंजस्य के नाम पर कुछ झुकना दोनों के सकारात्मक सोच को उजागर करेगा।
जहाँ तालमेल होगा..वहीं सुकून होगा...फिर वहीं पर उन्नति का मार्ग बनेगा और खुशियों का बसेरा होगा।
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