तेज रफ्तार में दौड़ती मनु की साइकिल आखिर टकरा ही गई... एक लैला जैसी लड़की से। लैला जैसी इसलिए क्योंकि मनु तो बच निकलता पर उसने तो जानबूझकर भिड़ा दी...अपनी साइकिल उसकी साइकिल से।
"होश में नहीं हो क्या?" मनु चिल्लाया तो लड़की मनु को घूरती हुई मुस्कुराई फिर मन ही मन में बुदबुदाई," होश... होश में ही तो थी, तभी तो भिड़ी हूँ।"
मनु शेर था तो लड़की सवा शेर।
भिड़ने के बाद दोनों अपने आप उठ खड़े हुए। मनु ने अपनी किताबें उठा ली तभी अचानक लड़की ने अपनी वाणी की बंदुक मनु की नजरों से नजरें मिलाकर दाग दी, बोली,"क्या तुम मुझे पसंद करते हो?"
गोली रुपी इस बौछार से घायल मनु बड़बड़ाते हुए हकला गया बोला,"मैं और तुम्हें? मैं तो तुम्हें जानता भी नहीं।।"
" जानते कैसे नहीं हो? मैं नीलू... वही नीलू, जिसे तुम रोज ही अपने बॉलकनी से घूरते हो। अब ऐसे बन रहे हो जैसे जानते ही नहीं हो।" नाटकीय अंदाज में लड़की आँखें नचाते हुए बोली।
"मैं और तुम्हें घूरता हूँ। पागल लगता हूँ क्या तुम्हें? मैंने तुम्हें कभी देखा नहीं, जानता नहीं, पहचानता नहीं, फिर तुम्हें घूरुंगा कैसे? अच्छा बताओ तुम रहती कहाँ हो?" मामले को सुलटाने और मामले की नाजुकता को समझने की गरज से मनु नीलू से पूछने लगा।
"तुम्हारे सामने वाले घर में।" नीलू जोर देकर बोली।
"सामने वाले घर में? पर वह तो किसी घर का पिछवाड़ा है।, जिसका सिर्फ रोशनदान ही दिखता है। बाकी तो बस दिवाल ही दिवाल है।" आश्चर्यचकित मनु बोला।
"हाँ हाँ वही, तुमने ठीक पहचाना। मैं उसी मकान के दूसरी मंजिल पर रहती हूँ। मैं जब अपने कमरे में बड़ी मेज पर स्टूल रखकर उस पर चढ़ती हूँ, तो तुम्हें सदैव अपने को घूरते हुए पाती हूँ।" नीलू मटकते हुए बोली।
झूठमूठ का तोहमत लगते देखकर मनु सरल तो हो गया। पर तल्ख स्वर में बोला," मैं कभी ऐसा कर सकता हूँ, नामुमकिन।"
" घूरते तो हो ही। अब सच सच बताना, झूठ मत बोलना। क्या तुम मुझे प्यार करते हो?" नीलू मटकते हुए बोली।
मनु बौखलाकर बोला,"अरे, मुझे तुम्हारी मुंडी तो कभी दिखी नहीं, फिर मैं तुम्हें प्यार कैसे कर सकता हूँ?"
" मुंडी नहीं दिखती तो क्या हुआ? आँखें तो दिखती है। प्यार आँखों से होती है, मुंडी से नहीं। और फिर प्यार तो एक नजर में होती है। तुम एक नजर के प्यार को झुठला नहीं सकते। माना तुम्हारी आँखें दूर की नजर को पहचान न पाई हो, पर अब तो तुम मेरे पास हो और तुम्हारी नजरें मेरी नजरों से टकरा चुकी है। मुझे तुमसे प्यार है। तुम्हें मुझसे अभी-अभी प्यार हुआ होगा, फिर तुम कैसे इंकार कर सकते हो?" नीलू बकबक किए जा रही थी।
गले में लटकते ढोल की तरह नीलू लैला बनकर जबरन उसके गले लटककर अटकने लगी थी। मनु घबड़ा गया।
" तुम्हारी बातें तुम जानों। मुझे उससे कोई मतलब नहीं है। माँ के डंडे नहीं खाना है मुझे, इसलिए मैं तो चला।" यह कहते हुए मनु फुर्ती से साइकिल उठाने लगा।
और बैठकर नौ दो ग्यारह होने की तैयारी में था।
"माँ के चमचे।"? नीलू ने आखिरी गोली दागी।
नीलू की टिपकारी पर ध्यान न देकर मनु वहाँ से रफूचक्कर होकर सीधा अपने घर पहुँच कर सांस लिया। गले की फाँस को खंखारकर गला साफ किया, फिर सोचने लगा,' कैसी बेवकूफ लड़की से पाला पड़ गया। अच्छा हुआ जो जल्दी से पिंड़ छुड़ा लिया।, वरना न जाने किस जाल में फँसा लेती।'
लड़की...वह भी लैला जैसी...ऐसी बला से दूर रहने वाले मनु का ध्यान सिर्फ अपनी पढ़ाई पर केंद्रित रहता था। वह होनहार कुशाग्रबुद्धि का चतुर छात्र था, जो अपने कालेज में सदैव टॉप करता था। गोल्डमैडलिस्ट मनु को उन लफड़ों से कोई सारोकार नहीं था, जिन मंगढ़ंत लफड़ों का वर्णन नीलू कर रही थी। मनु कमरे में टलहता था, पढ़ता था। रटने और सोचने के वक्त वह खिड़की के सामने खड़ा होकर मनन करता। इस निस्वार्थ और स्वच्छंद सोच पर किसी का ग्रहण लग सकता है, यह मनु के सोच से परे था।
मनु विचलित हो गया, तभी खिड़की के पास जाने से कतराने और डरने लगा, पर आदत से मजबूर वह खिड़की के पास पहुँच जाता तो बरबस उसकी आँखें सामने के रोशनदान पर टँग जाती, तब दो आँखें उसे घूरती नजर आ जाती।
यह देखकर मनु सोचने पर मजबूर हो गया कि क्या यह लड़की सिरफिरी है, दीवानी है या पागल है या उसके पास कोई काम नहीं है जो हर पल खिड़की...नहीं- नहीं रोशनदान पर अटकी रहती है।
मनु गुस्साया, उबलते दुध की तरह बौखला गया परंतु धीरे-धीरे जब वह नीलू की बचकानी हरकत सोचता तो तरस खा जाता। तब कभी-कभी छुपकर वह भी रोशनदान की तरफ झांक लेता था।
अचानक एकदिन नीलू फिर टकरा गई थी मनु से। टकराते ही वह मनु पर गुब्बारे की तरह फूट पड़ी, बोली," सोचे, कुछ समझे? क्या तुम्हारे दिल में कुछ-कुछ हुआ? देखो मेरा दिल जोर से धड़क रहा है। सांस भी ठीक से नहीं ले पा रही हूँ। जल्दी से चलो किसी रेस्ट्रा में बैठकर चाय पीते है।"
मनु कुछ बोलता उससे पहले ही वह उसका हाथ पकड़कर आगे बढ़ने लगी।
मनु होशहवास गवां चुका था। इसलिए वह बिना कुछ बोले चुपचाप उसके पीछे चल दिया। दोनों ने मिलकर काफी पिया। नीलू बक-बक करती रही और मनु मूक श्रोता बना रहा।
उठते ही नीलू बोली," फिर कब मिलोगे?" उत्तर की परवाह कहाँ थी नीलू को। वह तपाक से फिर बोली," चलते है, लेकिन कल शाम को ठीक 5 बजे इसी रेस्ट्रोरेंट में आना। मैं तुम्हें यही मिलूंगी।"
"ठेंगा से...राह ताकती रहना, मैं किसी भी कीमत पर आने वाला नहीं। उल्लू का पट्ठा समझ लिया है मुझे।" मनु सोचता और दृढ़ निश्चय करता हुआ घर पहुँच गया।
दूसरे दिन चार बजे से ही मनु बेचैन हो गया..पर मन को दृढ़ करते हुए सोचने लगा,'कैसी जादुगरनी है? चैन हराम कर दिया है। नहीं जाऊंगा। देखे क्या करती है?"
पौने पांच बजे बेचैन मनु को उसकी बंदरघुड़की याद आ गई,"देखो, ठीक समय पर आ जाना, वरना मैं तुम्हारे घर पहुँच जाऊंगी।"
मनु की सारी काबलियत धरी की धरी रह गई। वह झटपट उठा और रेस्ट्रोरेंट पहुँच गया। मनु की बुद्धि भ्रष्ट हो कर बिगड़ चुकी थी। लैला के धन्चक्कर में उसका मन पढ़ाई से उचट चुका था। वह प्यार के दुधारी तलवार पर टँगकर फँस चुका था। उसकी तूती नीलू के सामने ठप हो चुकी थी।
एकदिन मनु ने देखा नीलू माँ की सब्जी का झोला थामें घर तक आ गई। वह हँस-हँसकर माँ से बातें कर रही थी। माँ भी उसकी चापलूसी भरी बातों में मगन थी। मनु विचार मग्न होकर पशोपेश में पड़ गया कि यह नीलू अब क्या गुल खिलायेगी।
असमंजस में मनु की जान अटकी ही थी कि नीलू ने गुल खिला दिया। माँ ने बिना कुछ सोचे-समझे यह घोषणा कर दिया कि नीलू ही इस घर की बहू बनेगी। कुशाग्रबुद्धि वाले मनु की सारी काबलियत एक लड़की के सामने फिस्स हो गई। गोल्डमैडलिस्ट मनु...प्रशासनिक अधिकारी का सपना पालने वाला मनु... एक ऑफिस का बाबु बनकर रह गया।
माँ-बेटा को फँसाकर लैला (नीलू) इस बड़े कोठी की मालकिन बन बैठी। अब माँ-बेटा दोनों की जिंदगी नीलू के सामने 'हाँ जी-हाँ जी' करते-करते बीतने लगा।
ऐसी लैलाएं दिल फेंक नहीं होती, पर अपना उल्लू सिधा करने अर्थात स्वार्थ सिद्ध करने की कला में पारंगत होती है। आलिशान कोठी की अपार संपदा या किसी होनहार विरवान को देखकर उनका मन मचला या लालायित हुआ तो वे उस लाडले के पीछे तब तक मड़राती है, जब तक कि वह उनके जाल में फँसकर शादी के बंधन में न बँध जाएं।
इसलिए जब सामना हो ऐसी लैला से...तो सावधान हो जाओं... और तौबा कर लो, वरना...सारी काबिलियत धरी की धरी रह जायेगी और बलि का बकरा बनते देर नहीं लगेगी।
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