वो मासूम चेहरा (कहानी)

(भूखे गरीब के कटोरे में क्या एक रोटी या चंद सिक्का डालने से आत्मसंतुष्टि मिलती है और न डालने से आत्मग्लानि की पीड़ा? यह एक ज्वलंत प्रश्न है। जिसके कारण भिक्षा प्रथा को बढ़वा देने या इसे रोकने जैसी दोहरी मानसिकता के द्वंद में फँसें एक व्यक्ति के लिए यह विकट व असमंजस वाली समस्या बन जाती है..जब उसके सामने अजीबोगरीब स्थिति में कोई दयनीय मूर्ति सामने आकर हाथ फैला देता है।
     इसी द्वंद में फँसे मानसिकता का लाभ उठाकर आज समाज का एक तबका भीख माँगने की प्रथा को अपना व्यवसाय बनाकर जीवित है।  इसी द्वंद में फँसे एक अध्यापिका का ममत्व भरा सम्बन्ध एक भिखारिन के बेटा से अजीबोगरीब स्थिति में ऐसा बन गया, जो मार्मिक और ह्रदयस्पर्शी था। )

वो मासूम चेहरा

==========

वर्षा की उस भीगती अंधेरी गौधूली बेला में पहाड़ी सन्नाटे रास्ते के बीच हमारी गाड़ी दौड़ रही थी। हमें झमाझम बरसते पानी की बूंदें आकर्षित कर रही थी। पर उन्हीं बूंदों की रफ्तार जब कम होने की बजाय बढ़ने लगा, तब हम लोग कुछ सहमते हुए एक दूसरे में सिकुड़ने लगे। ड्राइवर भैया को हमारे डर का एहसास हो गया। वे हमें आश्वस्त करते हुए बोले," आप लोग घबड़ाईये नहीं, मैं आप लोगों को सुरक्षित होटल पँहुचा दूंगा। "
ड्राइवर भैया गाड़ी की गति धीमी कर दिये, तो हम आश्वस्त हो गये।
  अति उत्साह से लवरेज होकर हम सपरिवार उत्तराखंड के पहाड़ी स्थल अल्मोड़ा और उसके आसपास की मनमोहक पहाड़ी स्थल को घूमने निकले थे ,अतः हम प्रकृति के रमणीक नजारों का अवलोकन करने के लिए खिड़की से बाहर झांकने लगे। होटल पँहुचकर सबसे पहले हमने सफर की थकान मिटाने के लिए चाय का ऑडर दिया। पानी बरसना बंद हो चुका था।
चाय पीने के थोड़ी देर बाद मैं बच्चों को लेकर पास के बाजार में घूमने के लिए निकल पड़ी।
बच्चों के मनपसंद सामग्री को खरीदने के बाद
हम फटाफट एक रेस्टोरेंट में घुस गये। बच्चे पहले से ही अपनी फरमाईश की फरमान जारी किये हुए थे। कुर्सी पर बैठते ही हम वेटर की इंतजारी करने लगे।
उसी समय एक पंद्रह-सोलह साल का लड़का पानी का गिलास लेकर आया और मेज पर रखकर चला गया। गोरा रंग, तीखे नैन-नक्श वाले लड़के को देखकर मैं चौंक गई। क्योंकि यह चेहरा कुछ परिचित सा लगने लगा था। बैठे-बैठे फिर अतीत के पन्नों को मैं झकझोरने लगी कि इस लड़के को कहाँ देखी हूँ ? यादों के झरोखें से झांकते-झांकते अचानक मैं लखनऊ के उस मकान में पँहुच गई, जँहा  रेलवे लाइन के पास बने मकान में मेरा परिवार किरायेदार के रुप में वर्षों से रहता था। मैं एक कालेज की अध्यापिका थी। जिस कालेज में मेरी नियुक्ति हुई, उसी कालेज के पास घर लेने के चक्कर में हमें रेलवे क्रासिंग के पास मकान लेना पड़ा। घर से नियत समय पर निकलना मेरी प्रतिदिन की दिनचर्या बन गई। मैं पैदल ही अपने कालेज जाती थी।
    घर से निकलकर जब कुछ दूर आगे बढ़ती तब रेलवे क्रासिंग पार करनी पड़ती थी। रेलवे लाइन के किनारे बहुत सी झोपड़ियाँ थी। एक दिन उसी क्रासिंग के पास एक झोपड़ी से निकलकर एक नौजवान औरत सामने आकर अपना टेढ़ा-मेढ़ा एल्युमिनियम का कटोरा कुछ पाने की लालसा में मेरे सामने बढ़ा दी। उसके इस प्रकार मांगने से मेरा मन खिन्नता और गुस्से से भर गया था। मैं एकटक उसको देखने लगी, तो वह कहीं से भी मुझे अशक्त नहीं लगी। अच्छी-भली, दुबली-पतली सुंदर सी औरत फटे-पुराने साड़ी में लिपटी हुई, एक हाथ में छोटी बच्ची को सम्भाले हुए और दूसरे हाथ में कटोरा थामें हुए रिरियाते हुए खड़ी थी। मैं झुझला गई। मेरी इच्छा उसके कटोरे को उठाकर फेंकनें की होने लगी, तभी माँ के आँचल को पकड़े फटेहाल स्थिति में खड़ेे सात साल के लड़के के निश्क्रिय-निरीह नजरों को देखकर मैं बिना कुछ बोले अचानक एक तरफ हटती हुई आगे बढ़ गयी।
दूसरे दिन भी जब वह उसी स्थिति में सामने आकर खड़ी हो गई, तो मन की झल्लाहट व टीस निकालने के लिए मैं बरबस बोल पड़ी, "तुम्हारा नाम क्या है?"
वह मुँह बनाकर बोली,"करौली।"
उसके ढ़ीठपने को देख मैं गुस्से से भरकर तिरस्कृत शब्दों में बरबस चिल्ला पड़ी," देखो करौली, तुम देखने में भली-चंगी हो। कोई काम-धंधा कर सकती हो, फिर भी भीख माँगती हो। शर्म नहीं आती क्या तुम्हें ? कुछ काम करो तो काम दिला सकती हूँ, पर पैसा फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगी।"
मेरी कडुआहट और कर्कश बोली उसे प्रिय नहीं लगी। इसलिए बुदबुदाती हुई मुँह बिचकाकर वह वँहा से खिसक गई। लड़का भी  अजीबोगरीब  नजरों से मुझे घुरता हुआ माँ के पीछे चला गया। लड़के की नजरों में मुझे अजीब सी कसक दिखी, फिर भी मैं बिना कुछ बोले आगे बढ़ गई।
इसके बाद घर से निकलते समय ही मेरी मनोदशा बहुत खराब होकर घबड़ाने लगता कि  कहीं उस करौली से सामना तो नहीं हो जायेगा और वह मेरे आगे कटोरा बढ़ा देगी। करौली के कटोरा को देखकर मैं क्षुब्ध हो जाती थी, क्योंकि कोई कटोरा फैलाकर सामने खड़ा हो और मैं उसके कटोरे में कुछ डाल न संकू..ऐसी अक्षम तो मैं नहीं थी। पर भिक्षा प्रवृत्ति को बढ़ावा न देने का जो संकल्प मैंने लिया था, उस पर मैं दृढ़ थी। अपनी उसी दृढ़ता के कारण कुछ न देने की आत्मग्लानि की वेदना जो मन को कचोटती थी, उसे मैं सहती थी, क्योंकि उससे मुक्त होना मुश्किल था। पर मैं अपने मन में बँधे उस संकल्प के कारण विवश थी, जिसमें मैंने संकल्प लिया था कि मैं भीख प्रथा को कभी प्रोत्साहित नहीं करुंगी। और किसी ऐसे की मदद कभी नहीं करुंगी जो इस प्रथा को बढ़ाने में लगा हो।
मैं भिक्षा मांगने की प्रथा की विरोधी थी, पर किसी जरुरत मंद की जरुरत पूरी न करु ,ऐसी मेरी कोई मंशा नहीं थी। यह मैंने अपनी माँ से सीखा था। वे कहती थी कि जरूरत मंदों की जरूरत पूरा करने और उन्हें आगे बढ़ाने से जो संतुष्टि मिलती है, वह ईश्वर स्तुति से बड़ा कृत्य होता है।
माँ की सीख उस दिन काम आया जब कालेज से लौटते समय मैंने देखा कि भिखारिन करौली का बेटा रेलवे लाइन के किनारे अकेले गिट्टियों से खेल  रहा था। मैं पहले उसकी मासूमियत को निहारती रही, फिर उसे होले से पुकारती हुई बोली," सुनों, तुम्हारा नाम क्या है?" यह सुनकर वह चौंककर अविश्वसनीय नजरों से मुझे घूरने लगा। क्योंकि उसे विश्वास नहीं हुआ कि माँ को तिरस्कृत करने वाली महिला उसे पुकार भी सकती है। कुछ क्षणों के पश्चात आँखें नीची करके धीरे सेे बोला,' धुनधुन '
" कुछ खाओगे ? "
"नहीं, अम्मा मारेंगी।"
" अम्मा को पता ही नहीं चलेगा। मैं तुम्हें आइस्क्रीम खिलाऊंगी ।
आइस्क्रीम शब्द ही ऐसा लुभावना होता है, जिससे बच्चों का मन फिसल जाता है। यह उनकी कमजोरी होती है। धुनधुन के चेहरे पर हल्की चमक आई, पर चारों तरफ देखने के बाद वह मायूस होकर बोला,"कहाँ से दिलायेंगी आइस्क्रीम ? जब पास में कोई आइसक्रीम वाला है ही नहीँ।"
उसका संदेह लाजमी था। मुझे उसकी तत्परता भली लगी। मैं चहककर बोली, "खिलाऊंगी ना, अपने घर में खिलाऊंगी। आओ घर चले।"
"घर में ? पर मैं आपके घर जा नहीं सकता। अम्मा जान जाएंगी, तो मेरी बहुत कुटाई होगी।" धुनधुन अपनी असमर्थता जताने लगा।
मैं उसे बरगलाने के उद्देश्य से बोली,"अम्मा को बताऊंगी ही नहीं। खाकर जल्दी से चले आना। मेरा नाम मेघना है। मैं यहीं पास के कालेज में पढ़ाती हूँ। तुम मुझे मेघना आँटी कह सकते हो।" मेरा तीर निशाने पर लग गया।
वह उठकर मेरे पीछे आने लगा। घर आने पर वह बाहर लान में बेंच पर बैठ गया। मैं दरवाजा खोलकर अंदर गयी और उसके लिए रोटी-सब्जी लेकर आई। जिसे देखकर वह बोला ,"आँटी, आप ने आइस्क्रीम देने को कहा था। आइस्क्रीम कहाँ है?"
"पहले इसे खाओ, फिर आइस्क्रीम देती हूँ।" मैं उसे तश्तरी पकड़ाते हुए बोली।
वह बड़े चाव से खाने लगा। इसके बाद मैं उसे घर में रखी हुई आइस्क्रीम लाकर दे दी। खाने की तृप्ति उसके चेहरे पर परिलक्षित होने लगी, जिसे देखकर मुझे भी संतुष्टि मिला। अब मैं अपने मन की उस ग्लानि से मुक्ति पा ली, जो सामने फैले हुए हाथ पर कुछ न रखने के कारण मैं झेल रही थी।
     अब घर से निकलते समय करौली के कटोरे का वह डर भी समाप्त हो गया। करौली भी अब समझ गई कि यहाँ उसका दाल गलने वाला नहीं है। अब वह मुझे देखकर भी मेरे पास फटकती नहीं बल्कि मुँह फेर लेती थी। मैं उसकी इस अवहेलना से बहुत खुश थी। मैं करौली को अपने पास बुलाकर काम की महत्ता समझाने का जब भी प्रयास करती , वह निष्फल ही निकलता, क्योंकि वह अपनी रोजी-रोटी कमाने के धंधा भीख माँगने में इतनी तल्लीन रहती कि उसे छोड़ने की कल्पना वह कर नहीं सकती थी। भीख माँगना उसकी मजबूरी नहीं, बल्कि उसका व्यवसाय बन गया था और वह बच्चों के साथ उसी में व्यस्त रहती। कई बार मैं उसे किसी पेड़ के नीचे बैठकर कुछ खाते और बच्चों को खिलाते देखती।
माँ की अनुपस्थिति में धुनधुन से मेरा हाय -हलो वाली दोस्ती कायम हो चुकी थी। इसलिए अपनी आपाधापी वाली जिंदगी में मैं धुनधुन के लिए थोड़ा समय निकाल ही लेती थी। अतः आते-जाते धुनधुन से कुछ बाते हो जाती। मैं उसे कुछ खाने को देती तो वह ले लेता। वह थैंक्यू आँटी बोलना भी सीख गया था। धुनधुन मुझे इसलिए भी पसंद था क्योंकि उसे अपनी माँ का भीख माँगना अच्छा नहीं लगता था। उसका बापू दिनभर दारु पीकर निठल्ला बैठा रहता। पैसा न मिलने पर वह करौली और बच्चों की पिटाई करता। धुनधुन कहता,"आँटी, बड़ा होकर मैं कुछ काम करुंगा, माँ की तरह भीख नहीं मांगूंगा।" मैं भी धुनधुन के लिए कुछ करने को सोचती थी।इसलिए बच्चों वाली किताब-कापी लाकर दी, और उससे बोली कि यदि वह पढ़़ना चाहेगा तो मैं उसे पढ़ाऊंगी। बाद में पता चला कि करौली ने उसके किताब-कापी को फाड़कर फेंक दिया और धुनधुन को मुझसे दूर रहने की हिदायत दी। करौली डरती थी कि मैं धुनधुन को बरगला रही हूँ। इसी डर के कारण वह धुनधुन पर निगाह जमाये रहती थी और मुझसे बातें करने से मना करती।
      ठंड़ की एक रात बहुत बर्फीली थी। सुबह कालेज जाने की हिम्मत नहीं थी। पर नौकरी की मजबूरी के कारण गर्म कपड़ो से लदी-फदी मैं घर से बाहर निकली तो धुनधुन मुझे एक पतली कमीज पहने गिट्टियों से खेलते हुए नजर आया। मुझे यह देखकर बहुत गुस्सा आया।
मैं धुनधुन को बुलाकर पूछी ,"धुनधुन, ठंड बहुत है। तुम वह स्वेटर या कोट क्यों नहीं पहने हो , जो मैं तुम्हें और ढ़ुलकी को पहनने को दी थी।"
"आँटी, अम्मा कोई स्वेटर या कोट देती ही नहीं है। कहती है, उसे पहन लोगे तो किसी को तुम पर दया आयेगी ही नहीं। फिर वह भीख देगा ही नहीं। भीख में कुछ पाने के लिए दयनीय व कमजोर दिखना जरुरी है। मैंनें बहुत जिद की, पर वे मुझसे ज्यादा जिद्दी निकली। मुझे कोट नहीं दी तो नहीं ही दी, उन्होंने ढ़ुलकी को भी वैसे ही ठिठुरने के लिए जमीन पर पतली कथरी में लुढ़का दिया। अम्मा को ढ़ुलकी की याद तभी आती है, जब वे भीख माँगने जाती है। बाकी समय में मैं ही उसको देखता हूँ। तभी तो ठंड़ से ठिठुरती ढ़ुलकी को देखकर मेरा गुस्सा फूट पड़ा और मैं अम्मा से लड़कर यहाँ बैठा हूँ। "
" ठीक है, तुम खेलो। मैं दोपहर में आकर तुम्हारी अम्मा से बात करती हूँ।" मुझे देर हो रही थी । इसलिए झटपट वहाँ से चल दी। दोपहर में थकान की वजह से घर आकर कुछ होश ही नहीं था।
  दूसरे दिन कालेज जाने को निकली तो धुनधुन का दोस्त मेरे पास आकर बोला,"आँटी, धुनधुन घर छोड़कर भाग गया है। उसके अम्मा-बापू उसे खोज रहे है।"
"अरे कहाँ जायेगा? देखना शाम तक मिल जायेगा।" मैं लापरवाही से बोलकर चल दी। क्योंकि सात साल का भिखारिन का बच्चा घर छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पायेगा। पर मेरी सोच गलत साबित हुई। धुनधुन अपने धुन का पक्का था। एकबार घर से गायब हुआ तो फिर वापस आया नहीं।
आज सात-आठ साल बाद धुनधुन की शक्ल का लड़का देखकर विचारों की तन्मयता में मैं भूल सी गई थी कि मैं कहाँ बैठी हूँ । तभी वह लड़का वापस आकर बोला," आप कहीं मेहूल आँटी तो नहीं है?"
" हाँ , मैं मेहूल आँटी ही हूँ। तुम धुनधुन हो ना।"
धुनधुन ने सर हिलाकर हामी भरा, तब मैं उत्साहित होकर आगे बोली," तुमसे इस तरह मिलूंगी ..यह सोच नहीं सकती थी। कैसे हो?"
"आँटी, मैं तो ठीक हूँ,पर अम्मा और ढ़ुलकी कैसे है? मुझे उनकी बहुत चिंता सताती है और याद भी आती है। तब रातों की नींद गायब हो जाती है।" धुनधुन रुआँसा होकर बोला।
"धुनधुन तुम्हारी अम्मा और ढ़ुलकी अब भी वैसे ही है। दोनों अब भी अपने पुराने धंधे में लगी हुई है। धुनधुन तुम तो व्यवस्थित लग रहे हो, फिर तुम अपनी अम्मा और ढ़ुलकी को यहाँ लाते क्यों नहीं हो?"
" आँटी, मैं एक बार बीच में घर गया था। अम्मा से बोला तो अम्मा आने को तैयार नहीं हुई । ढ़ुलकी को अकेले मैं सम्भाल नहीं सकता। बापू तो अपने पुराने ढ़र्रे पर जी रहे होंगे? उन्हें कोई सुधार नहीं सकता है। अम्मा मुझे रोक रही थी पर मैं रुका नहीं।"
" क्या तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हारे बापू अब नहीं है।"
"आँटी, ये कैसे हुआ? "
"ये तो मुझे पता नहीं है।"
"आँटी, मेरे बापू अच्छे नहीं थे। उनकी लत ही ऐसी थी जिसके कारण वे माँ को भीख माँगने के लिए विवश करते थे।"
"ऐसा न कहो, तुम्हारी माँ को भीख माँगने की लत थी। वरना आज तो तुम्हारी माँ स्वतंत्र है। उन्हें अपने इसी काम को करने में मजा मिलता है। तभी वे इस धंधे को छोड़ती नहीं है। पर इसमें तुम्हारी ढ़ुलकी को खतरा है। तुम उसे बचा लो।"
धुनधुन कुछ जवाब देता उससे पहले ही उसका बुलावा आ गया। वह हड़बड़ा कर बोला,"आँटी, आप कहाँ ठहरी है? मैं कल आठ बजे सुबह से पहले आप को मिलता हूँ।"
"ठीक है, मैं कल सुबह छः बजे के करीब टहलती हुई यहीं आती हूँ। फिर देर तक बाते करुंगी।"
धुनधुन चला गया । हम लोग भी खा पीकर अपने ठिकाने पर आ गये।
दूसरे दिन सुबह मेरी नींद जल्दी खुल गयी। अपना काम निबटाकर  सब लोगों को सोता छोड़कर बाहर निकल आयी। मैं जानती थी बच्चे आठ-नौ के पहले उठेंगें नहीं। तब तक मैं धुनधुन से मिलकर लौट आऊंगी।  मैं साढ़े छः बजे ही रेस्टोरेंट पँहुची तो देखती हूँ कि धुनधुन सीढ़ियों पर बैठकर मेरी इंतजारी कर रहा था। "साँरी बेटा, आने में थोड़ी देर हो गई। "
"आँटी, मैं जब भी अपने को काफी अकेला महसूस करता था, उस समय मुझे माँ से ज्यादा आपकी याद आती थी। ऐसे में आपका मिलना मेरे लिए बहुत मायने रखता है। मुझे कितना अच्छा लग रहा है..यह मैं ही समझ सकता हूँ। चलिए, अंदर बैठकर बातें करते है। "
धुनधुन के साथ मैं रेस्टोरेंट के बगल में बने एक कमरे में गई। वहाँ एक चौकी पर बिस्तर बिछा था। चौकी और दिवाल के बीच में एक कुर्सी थी। शायद धुनधुन कुर्सी की व्यवस्था मेरे बैठने के लिए ही किया  था। अतः मैं उस पर बैठ गई। धुनधुन खड़ा था। मेरे कहने पर वह चौकी पर बैठ गया।
बात मैंने ही शुरु किया। मैं बोली," धुनधुन, तुम्हें आज इस स्थिति में देखकर मैं बहुत खुश हूँ। तुम जानते नहीं हो कि अचानक तुम्हारे गायब होने की खबर से मैं कितना आहत हुई थी। तुम्हारा मासूम, भोला, मुस्कुराता चेहरा.. तुम्हें किस नरक में ढ़केल सकता था। यह तुम सोच भी नहीं सकते थे। क्या तुम्हें डर नहीं लगा? ऐसा कदम उठाने से पहले एक बार मुझसे तो मिल लेते।" मैं उलाहना भरे शब्दों में बोलती जा रही थी।
तभी धुनधुन मुझे रोककर बोला,"आँटी, घर तैश में छोड़ा था। इसलिए क्रोध के अतिरिक्त और कुछ सोच नहीं पाया। यह तो भला हो गया ,जो राजू भैया मुझे मिल गये और बड़े भाई की तरह मेरा ख्याल रखें।"
" धुनधुन, तुम्हारा गुस्सा किस पर था। तुम तो माँ की छत्रछाया में सकून से रह रहे थे। सिर्फ खाना और खेलना । फिर गुस्सा किस पर?"
"आँटी,पहले मैं भी मस्त था। मेरी दोस्ती पड़ोस में रहने वाले रघु और राजी से हुई तो हम मिलकर खूब मजे में खेलने लगे। मुझे दोनों बहुत अच्छे लगते थे। पर खेल के बीच में रघु की माँ आ गई तो उन्होंने रघु को एक भिखारिन के बेटा के साथ खेलने को मना किया, तब पहली बार मुझे एक भिखारिन का बेटा होने पर शर्मिंदगी महसूस हुआ। इसके बाद भिखारिन शब्द से मुझे चिढ़ होने लगी।"
"कोई इतनी सी बात पर  अपना घर तो नहीं छोड़ता है। फिर तुमने क्यों छोड़ा ?" मैं बरबस बोल पड़ी।
"बात इतनी होती तो कोई बात नहीं थी। इसके बाद रघु व राजी जब भी मिलते भिखारिन का बेटा कह कर ताना मारते थे। मैं कहता था कि मैं गरीब हूँ। मेरी अम्मा के पास रहने, खाने और काम का अभाव है इसलिए हमें भीख माँगना पड़ता है। तब वह कहता..गरीब तो हमारी अम्मा भी है, पर वे काम करके हमें खिलाती और स्कूल भेजती है। तेरी अम्मा कामचोर है..कामचोर। इसलिए कटोरा लेकर लोगों के सामने गिड़गिड़ाती रहती है। लोग भगाते भी है, पर वे पीछे -पीछे हाथ फैलाये रहती है। मुझे रघु की बाते चुभती थी। अम्मा-बापू से कहता तो वे दौड़ा लेते। मेरा सुनने वाला कोई नहीं था। "
"यह तो ठीक है। पर तुमने घर क्यों छोड़ा? यह मेरी समझ में नहीं आया था।" मैं अपनी जिज्ञासा की संतुष्टि के लिए फिर पूछी।
"द्वंद्व व उथल-पुथल तो पहले से मची थी। पर जिस दिन घर छोड़ा...उस दिन तो हद हो गई। उस दिन गजब की ठंड़ थी। अम्मा भीख मांगने के लिए परेशान कर रही थी और मैं कोट पहनने के लिए जिद पर अड़ा था कि कोट दोगी, तभी चलूंगा। कोट तो नहीं मिला, पर  धुनाई खूब हो गयी। आप ही बताईए आँटी..जहाँ हमें पेट भर खाना और रखें हुए ढ़ेर सारे कपड़े होने के बावजूद भी पहनने को न मिले, वहाँ रहने से क्या फायदा? और जो पैसे मांग कर लाओ, उस पर बापू की नजर टिकी रहती थी। वे उसे छिनकर दारू में गवां देते थे। मैंनें सोच लिया कि यहाँ रह गया तो बापू की तरह निठल्ला बनकर और माँ की तरह दूसरों के सामने गिड़गिड़ाने के अतिरिक्त और कुछ हासिल नहीं होगा।" यह कहते कहते धुनधुन रोने लगा।  मैंने उसे मन की गुबार निकालने की पूरी छुट दे दी, इसके बाद जब मैंने उसके आँसू पोछे, तो वह फिर बोला,"आँटी, अब आप ही बताइए मैंने वह घर छोड़कर अच्छा किया कि नहीं।"
"नहीं बेटा, तुम्हारी सोच अच्छी थी। भीख मजबूरी में मांगते है..काहलियत के कारण नहीं। पर तुम्हारी उम्र घर छोड़ने की नहीं थी। अगर तुम फिर गलत आदमी के हाथ में पड़ जाते तो तुम्हारा हस्र क्या होता? खैर , तुम सही-सलामत हो, यह जानकर बहुत खुशी हुई। अब मैं तुम्हारी तरफ से संतुष्ट हूँ। जब भी मेरी याद आयेगी, मुझे फोन कर लेना। "
"आँटी, अम्मा और ढ़ुलकी की याद बहुत आती है। पर क्या करु..जिस नारकीय जिंदगी को पीछे छोड़ चुका हूँ..उसमें जाने की इच्छा नहीं होती है।" वह उदास होकर बोला।
"धुनधुन, तुम अपना नंबर मुझे दे देना। मैं तुम्हारी अम्मा और ढ़ुलकी को राजी करुंगी। यदि वे यहाँ आ जाती है तो ढ़ुलकी को नारकीय जिंदगी से छुटकारा मिल जायेगा।"
बातों का सिलसिला चलता ही रहा, पर देर होने पर मुझे लौटना था। इसलिए मैं लौट आयी। धुनधुन मुझे होटल तक छोड़ने साथ आया।
मैं जब तक वहाँ थी, तब तक रोज धुनधुन से मिलने जाती और बातें करती।
होटल छोड़ने का दिन आ गया। होटल छोड़ने से पहले धुनधुन आ गया तो मुझे बहुत खुशी हुई।
विदा बेला में वह रो रहा था और मेरे आँसू भी रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। मैं भी उसे गले लगाकर ऐसे फूट पड़ी जैसे अपने बेटा को अकेला छोड़कर मैं मजबूरन घर लौट रही हूँ। हमारी नजरें ओझल होने से पूर्व एक दूसरे को निहारती रही।
घर लौटने पर अब मेरा एक ही उद्देश्य था.. ढ़ुलकी को उस नारकीय जिंदगी से छुटकारा दिलाना। ढ़ुलकी के जाने के बाद शायद करौली को अकेलापन महसूस हो,तब उसे भी कुछ अक्ल आ जायें और उसे उसके नारकीय जिंदगी से मुक्ति मिल जाए।

https://www.facebook.com/Phulkari.RenukaSrivastava/posts/294052885676121 

कोई टिप्पणी नहीं: