अनोखा बंधन (कहानी)

सास- ससुर के अभाव में नयी-नवेली बहू मृगनयनी के लिए ससुराल के नये परिवेश में नये लोगों के बीच का अनजाना माहौल अनोखी अनुभूतियों से युक्त थी। जेठ-जिठानी ही परिवार के मुखिया थे। उन्हीं की छत्रछाया में परिवार का पूरा कुनबा समाहित था।
मृगनयनी के विवाह की गहमागहमी बीत चुकी थी। एकदिन मृगनयनी की आँखें खुली, तब वह देखती कि उसकी जिठानी उज्ज्वला भाभी जी अपने कामों में जुटी हुई है। झाडू लगाने के बाद जब वह रात के बर्तन घुलने लगी, तब उसका मन सहयोग की आकांक्षा से कुड़बुड़ाने लगा। वह भाभी जी के पास पहुँच कर बोली,"आप बर्तन क्यों धो रही है। थोड़ी देर बाद बुढ़ी अम्मा तो आ ही जायेंगी।"
" कोई बात नहीं, दुलहिन। मैं रोज ऐसे ही धुलती हूँ। यह मेरा रोज का काम है। मैं आज भी धुल लूंगी। "
"मैं हाथ बँटा देती हूँ।"
"नहीं दुलहिन, इसकी कोई जरुरत नहीं है। तुम जाओ दूसरा काम देखो।"
मृगनयनी के बढ़े हाथ रुक गये। मृगनयनी जब भी किसी काम के लिए भाभी जी के पास जाती भाभी जी सदैव उसके बढ़े हाथ को अपने दलीलों से रोक देती थी। सहयोग लेना तो दूर, वह अपने काम में किसी की दखलंदाजी भी पसंद नहीं करती थी। उनका नियमित का काम बँधा हुआ था, जिसे वे करती और फिर तैयार होकर बच्चों के साथ कालेज चली जाती। खाना बनाने का काम ननद रश्मि ही करती थी।
मृगनयनी सोचने लगी कि कामवाली बूढ़ी अम्मा विलम्ब से आती है और आकर अपना पूरा काम निबटाती है। फिर भाभी जी का काम के ऐसे संकल्पों में बंधना उनकी कौन सी मजबूरी थी? यह उनकी अपनी कोई पारिवारिक जिद या स्वयं में ओढ़ी हुई कोई अभिलाषा थी, जिसे वह समझ न पा रही हो।
मृगनयनी जब से इस परिवार का हिस्सा बनी थी तभी से उज्ज्वला भाभी जी के व्यक्तित्व के जादू ने उसका मन मोह लिया था। वह उनके आकर्षण में बँध चुकी थी। भाभी जी सरकारी इण्टर कालेज में अध्यापिका थी।। सादगी, शालीनता व सौम्यता की प्रतिमूर्ति होने के बावजूद कभी-कभी उनकी चंचलता व चुहुलबाजी ऐसी होती, जो सबका मन मोह लेती। एक ही ढ़र्रे पर चलने वाली उनकी तल्लीनता व व्यस्तता उनकी खूबसूरती थी, परंतु आज की घटना से मृगनयनी को जो झटका लगा, उससे उसका दिल तार-तार हो गया। मृगनयनी असमंजस में थी...भाभी जी का यह बर्ताव क्यों?
कुछ ही दिनों बाद मृगनयनी को दूसरा और तीसरा झटका भी लगा। भाभी जी के लिए लायी गई चूड़ियों को जब भाभी जी लेने से इंकार कर दी, तब मृगनयनी को बहुत ठेस लगी।
कितनी अप्रत्याशित व अजीब सी घटना थी। प्रेम भरी भावनाओं से ओतप्रोत सौगात को लेकर वापस लौटती मृगनयनी के दिल और दिमाग के कपाट खुल गये...'हो ना हो, ऐसा कोई जख्म जरूर है, जो भाभी जी को नश्तर की भांति चुभी हुई है, तभी परिवार में उनकी एक अलग छवि थी। वे परिवार में सबसे थोड़ी दूरी बनाकर रहती थी। शायद उन्हें अपने नासूर बने घाव के फूटने का डर सताता हो।'
मृगनयनी दिल से भाभी जी की समीपता चाहती थी, पर भाभी जी उन्हें अपने दिल के करीब फटकने नहीं देती थी। भाभी जी के दिल को जीतना मीठे अंगूर को तोड़ने जैसा था। पर असमर्थता की स्थिति में मीठे अंगूर को खट्टा कहना मृगनयनी को गवारा नहीं था। इसलिए मृगनयनी की दृढ़ता ने पूरे परिवार की परिस्थितियों का अवलोकन करने के लिए स्वयं को तैयार कर लिया। मृगनयनी ने जो समझा, बूझा और अनुभव किया, उसी अनुभव के बलबूते उसकी लेखनी चल पड़ी।
मृगनयनी समझ गई कि पारिवारिक दायित्वों में जुड़ने और उससे मुक्त होने की यह एक ऐसी अनोखी दास्तान थी, जिसमें एक पति-पत्नी को अपने गिरफ्त में जकड़ लिया।
और उन्हें उलझने पर मजबूर कर दिया। शह-मात के इस खेल में कब किसकी जीत होती थी...कहना मुस्किल था। दोनों सशक्त व शिक्षित थे। अतः दोनों की परिवार में उमड़ती-घुमड़ती और बरसती उनकी भावनाओं को समझना जरुरी था,जिसके लिए मृगनयनी ने अपना कदम बढ़ा दिया।
अम्मा-बाबू जी के बाद परिवार को सम्भालने की जिम्मेदारी शाश्वत भाई साहब पर आ पड़ी। तीन बहनें, दो भाई अविवाहित थे। बड़े शशांक भाई साहब अलग रहने के कारण बहुत से जिम्मेदारियों से मुक्त थे। मृगनयनी की शादी भी घर से ही संपन्न हुआ था। अतः अधिकांश जिम्मेदारी शाश्वत भाई साहब और भाभी जी पर ही था। 
मृगनयनी के ससुराल का मकान बड़ा और खपरैल का था।मोटी-मोटी मिट्टी की दीवारों के बने कमरे और दलान के बीच में एक बड़ा सा आँगन था। आँगन के एक तरफ हैंडपम्प तो दूसरी तरफ मिट्टी का चूल्हा था। परिवार बड़ा और संयुक्त था,परन्तु घर में बुजुर्गों का अभाव था। गर्मी के दिनों में शाम का भोजन रसोईघर में न बन कर आँगन में ही बनता था। परिवार वहीं एकजुट होकर रहता और खाता-पीता। खाने के बाद आँगन में ही चारपाई बिछ जाती थी। बीच में लगे पर्दे के एक तरफ शाश्वत भाई साहब का परिवार तो दूसरी तरफ बाकी लोग सोते थे। व्यवस्था में यदि कभी कोई गड़बड़ी दिखती या वह भाई साहब के मनमुताबिक नहीं होती तो भाई साहब नुक्ताचीनी करके उसे अपने मनमाफिक कराते थे, जो मृगनयनी को अजीब लगता था। मृगनयनी की प्रारम्भिक व पहली समझ यही बनी कि इस परिवार के सर्वेसर्वा भाई साहब ही है।
मृगनयनी ने महसूस किया तब वह समझ पायी कि अम्मा-बाबू जी के न रहने पर परिस्थितिजन्य पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ अकेले शाश्वत भाई साहब के कंधों पर पड़ गया। शाश्वत भाई साहब शशांक भाई साहब से छोटे थे। शशांक भाईसाहब का परिवार पहले से ही अलग मकान में रहता था, जिसके कारण उनका परिवार स्वतंत्र और पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त था। दोनों भाइयों का यह अंतर ही उज्ज्वला भाभी जी के चिंताओं का कारण था, क्योंकि बड़ी भाभी जी बंधनों से मुक्त और वे बंधनों से युक्त थी।
शाश्वत भाई साहब के साथ पूरा परिवार बँधा था। जो उनके साथ था, उसकी देखभाल वे पूरी निष्ठा से अपने दम पर झेलना चाहते थे, जिससे परिवार की बागडोर उनकी मुट्ठी में कैद हो गया, तभी उनकी पैनी दृष्टि रसोईघर से लेकर सबके कमरों की गतिविधियों की तरफ घूमती थी। व्यवस्था में गड़बड़ी पर उनकी खोजी नजरें हस्तक्षेप भी करती और हल भी निकालती।
दायित्वों के बोझ के कारण जो उल्झनें, मुस्किलें और परेशानियाँ भाई साहब को झेलनी पड़ती थी, वह शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तनाव के रुप में जब कभी-कभी उनमें व्याप्त होती, तब प्रतिक्रिया स्वरूप वह ऐसे भीषण क्रोध का रुप धारण कर लेती थी, जो सबके सहमने व सिकुड़ने का कारण बनती। ऐसे समय में भाभी जी सबसे ज्यादा प्रभावित होती थी, क्योंकि भाई साहब का सारा क्रोध वहीं जाकर और अधिक उबलता, उफनता और फिर बिखरकर  खामोश हो जाता। पर इन पलों में भाभी जी का दिल छलनी न होता हो, यह सम्भव नहीं था।
भाई साहब गुस्सैल थे। सब उनसे डरते भी थे, पर सब रहना भी उन्हीं के छत्रछाया में थे। कड़क स्वभाव के बीच छुपे उनके मन की कोमल भावनाओं की परख सबमें थी और सब उनकी छत्रछाया में अपने को सुरक्षित महसूस भी करते थे।  इस प्रकार दायित्वों को निबाहने की जो चुनौती उन्होंने स्वीकारी थी, उस पर वे जिस तरह खरे उतरे...वह बेजोड़ व सराहनीय था और परिवार को बाँधे हुए भी था। यही कारण था कि बच्चे हो या बड़े सभी उन्हें अपना सबसे बड़ा हितैषी और अपने को सुरक्षित समझते थे।
उज्ज्वला भाभी जी इस सोच से परे थी। भाभी जी को अपना और  अपने बच्चों का भविष्य कुहासों की धुन्ध में जकड़ा महसूस होता, तभी वे अपने को तटस्थ करके इन बंधनों से मुक्त होना चाहती थी, पर भाभी जी इन बंधनों से कभी मुक्त नहीं हो पाती थी, क्योंकि उनकी जिंदगी ऐसे व्यक्ति से जुड़ी थी, जिसे अपने परिवार से जुड़ने में ही खुशी मिलती थी। भाभी जी की एक मजबूरी और थी। उनके मायके में उनकी माँ और छोटी बहन थी। भाई के अभाव के कारण उनका अपनी माँ और बहन से लगाव लाजमी था। पर कभी-कभी यह लगाव भी खींचतान का मुद्दा बन जाता था।
भाभी जी परिवार के विपरीत चीं-चूं न कर पावे इसलिए भाभी जी के स्वतंत्र व स्वच्छंद अधिकार क्षेत्र पर भाई साहब ने डाका डालकर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। ऐसे में कभी-कभी जब भाभी जी को मौका मिलता, तब वे चीं-चूं करके सबकी चूलें हिला देती। पर इस चीं-चूं के कारण ही वे भाई साहब के विश्वास पर खरी नहीं उतर पाती थी। यही कारण था कि भाई साहब उन्हें अपने गिरफ्त में रखते थे। छोटे मोटे क्लेश के दुष्परिणाम के कारण ही उनमें  एकरसता व एकरुपता का अभाव हो गया। और उनके दिलों की दूरियाँ इस मुद्दे पर बढ़ गई। 
सम्भवतः यही कारण था, वरना सभी के मनोभावों व जरुरतों को समझने वाले भाई साहब भाभी जी की छोटी व सीधी बातों पर इतना तल्ख हो जाते कि सुनने वाले अवाक हो जाते। अपनी पाबंदियों के कारण  ही भाभी जी अपनी इच्छा के अनुरूप कुछ नहीं कर पाती थी। वह कर्मठ व जुझारू होते हुए भी अपंग व अशक्त नजर आती थी।
एकदिन मृगनयनी के खरीदे समानों को देखते समय उनके मन की पीड़ा मुखर हो उठी। वे बोली," हमसे तो अच्छी तुम्हीं हो, दुलहिन, जो न कमाते हुए भी अपनी इच्छा की पूर्ति कर सकती हो। मैं तो अपने मन से एक गिलाफ भी खरीदकर नहीं लगा सकती।"
भाभी जी की यह मजबूरी मृगनयनी के दिल को छू गयी। वह सोचती, 'भाभी जी कालेज जाती है, कुछ पलों के लिए वे वहाँ स्वतंत्र है। वहाँ वे दिल खोलकर जी सकती है।' पर नहीं भाभी जी वहाँ भी स्वतंत्र नहीं थी। एकदिन अपनी विवशता के पंख मृगनयनी के सामने खोलती हुई बोली," दुलहिन, मैं तो कालेज में भी विवश हूँ। वहाँ मैं किसी से मन की बातें कहकर हल्की नहीं हो सकती, क्योंकि मुझे वहाँ भी घर जैसा ही बंधनों वाला माहौल मिलता है।"
मृगनयनी समझ गयी कि बड़ी जिठानी और बड़ी ननद के उसी कालेज में अध्यापिका होने के कारण उज्ज्वला भाभी के अधिकार क्षेत्र पर वहाँ भी डाका पड़ा था। वहाँ भी वे सीमित दायरें में कैद थी। वे मन की बातें करती भी तो किससे कहती? जिसके सामने वे मुँह खोलती ...वह कब किसका राजदार बन जाए। , कहा नहीं जा सकता है।
पति-पत्नी के संबंध गूढ़ व गोपनीय होते हुए दो विकल्पों के रुप में मुखरित होते है...समर्पण या विद्रोह। भाई साहब और भाभी जी का सम्बंध दोनों का मिश्रण था। समर्पण के भावना में बँधने के कारण ही उनके विवाह की परिणती प्रेम विवाह के रूप में सबके सामने आया। प्रेम और विश्वास की आसक्ति में डूबे भाभी जी के पग जब ससुराल के यथार्थ माहौल में कदम रखा, तब उन्हें अपने भविष्य के नवनिर्मित उम्मीदों के परखच्चे उड़ते नजर आये।
अतः विचारों की भिन्नता उजागर होते ही वे आपसी विद्रोही बन गये। वे सभ्य व शिक्षित थे, इसलिए उनका विद्रोह तू-तू, मैं-मैं के रुप में बरसता नहीं था। ऐसे में दोनों में एक खाशियत व सहूलियत दिखती। क्रोध रुपी भड़ास से जब एक बरसता था, तब दूसरा जलती हुई उन बूंदों को समेटने वाली धरती बनकर उन बूंदों को अपने अंतर पटल पर समाहित करके खामोश रहता और अपनी दिनचर्या में लीन हो जाता। इस प्रकार गरजने-बरसने की प्रतिक्रिया जल्दी ही शिथिल पड़ जाती। इसके बाद उनके मन की शेष मौन ठसक कब और कितने दिनों तक एक दूसरे पर हाबी रहता और कब वे मान जाते , यह दूसरा समझ नहीं पाता था।
भाभी जी अक्सर कहती थी,"ये मुझे पहले ही ठोंक बजाकर परख चुके थे, तभी मुझे इस परिवार का हिस्सा बनाये ताकि मैं सभी कुछ झेलकर इनके साथ खड़ी रह संकू।"
भाभी जी प्रतिभा संपन्न महिला थी। हँसने-हँसाने में दक्ष, गीत-संगीत में माहिर और पढ़ने-पढ़ाने में अव्वल...पर पारिवारिक माहौल व परिस्थितियों को अपने अनुकूल ढ़ाल न पाने की विवशता ने उन्हें कुण्ठा के आवरण में जकड़ लिया। जिसके कारण भाभी जी के स्वयं के जिद ने उन्हें धीरे-धीरे इतना समेट लिया कि वे सीमित दायरें में कैद हो गई। भाभी जी ने स्वयं अपने को कैद परिंदा बना लिया, जो पंख फड़फड़ाती थी पर उड़ती नहीं थी। जिंदगी की सारी खुशियाँ, दुख व दर्द को वे अपने सीने में  जब्त करके भाभी जी ने अपनी उम्मीदों को अपने बच्चों और कालेज में समेट लिया।
दिन बीतते गये। जीवन के अपरान्ह बेला में ननद-देवर की जिम्मेंजारियाँ समाप्त होते ही उनके अपने बच्चों की जिम्मेंजारियाँ बढ़ गई। बच्चों के प्रति दोनों सतर्क व जागरूक थे। बच्चों के प्रति अपने दायित्वों को निभाने की चाह में ऐसे बहुत से मौके आये जिन्हें भाई साहब खूबसूरत लम्हों का जामा पहनाने की कोशिश में लगे रहे, पर ऐसे अवसर पर भी व्यवस्था की चाभी उन्होंने अपने ही हाथ में रखा। भाभी जी ने अपना अंदाज और अपनी परम्परा नहीं बदला। अपनी सोच में बँधने के कारण वे बच्चों के लिए जीती और मरती थी, पर बच्चों पर वह अपना वैसा अधिकार नहीं जता पाती थी या जमाना नहीं चाहती थी जो एक माँ का अपने बच्चों पर होता है। यही कारण था कि बेटियों की शादी में बेटी का लँहगा और साड़ियाँ भी भाई साहब अपनी और बेटियों के पसंद की ही खरीदे। ऐसे सुनहरे मौके पर भी भाभी जी अपनी उमंग, उत्साह व ललक न छलकाकर मशीन की भांति अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में ही तत्पर व तल्लीन रहकर अपने को पूर्णता से अभिभूत करती थी।
समय अविराम गति से आगे बढ़ती रही। जीवन  की गौधूली बेला में जब भाई साहब के मन के एहसास ने करवट बदली, तब उन्हें अपने वैवाहिक जीवन के प्रारम्भिक क्षणों के भूल का एहसास हुआ और पछतावा भी हुआ। तब ऐसे समय में वे अपने सम्बन्धों को मधुर व कोमल बनाने के प्रयास में जुट गये। वे भाभी जी के घायल मन पर मलहम लगाने की पुरजोर कोशिश में लगे रहे।
जिंदगी का यह एक ऐसा मोड़ था, जब भाई साहब ने अपने को पूरी तरह बदल लिया, पर भाभी जी अपनी सोच से एक इंच भी खिसकना नहीं चाहती थी। तभी ऐसे नाजुक घड़ी में जब वह अपने नासूर बने पुरानी टीस की बखिया उघेरती और बिफरकर अपनी भड़ास निकालकर माहौल को गरम बना देती तब भाई साहब के अरमानों पर पानी पड़ जाता और वे क्षुब्ध हो जाते।
भाभी जी की बगिया में फिर बहार आ सकती है, इसकी कल्पना कभी भाभी जी ने की ही नहीं, क्योंकि उन्होंने अपने उमंगों के फूल को इतना मुरझा दिया कि समय अंतराल के बाद मिलने वाला खाद-पानी भी उन्हें इतना सक्रिय व जीवंत नहीं कर पाया कि वे अपने मुरझाए फूल को खिला पाती।
दोनों की थोड़ी नासमझी के कारण ...एक दूसरे को प्यार करते हुए भी उनका प्यार ...हनक-ठसक, गुरुर और क्रोध के नीचे दब जाता था। जिससे दोनों एक दूसरे के लिए सुकून के पल ढ़ूढ़ नहीं पाते थे। वे अनोखे व अजूबे प्यार में इतने रचे-बसे थे कि अपनी ठसक के चलते न तो उन्हें आंतरिक खुशी मिली, न सुखी जीवन की सुखद अनुभूति को दिल खोलकर वे अनुभव ही कर पाये और न खुशहाल, स्वंछन्द और चहकने वाले पारिवारिक माहौल का निर्माण ही करा पाये।
पारिवारिक दायित्वों को निबाहना और न निबाहना अब एक गौण क्रिया हो गयी। अतः इस कहानी का मूल मुद्दा  अब यह नहीं रह गया। मूल मुद्दा अब पहले की स्थिति से खिसककर इस बिंदू पर केंद्रित हो गया कि पति-पत्नी  में एक का वजूद दूसरे के कारण कब, कितना, कैसे, किन परिस्थितियों में किस हद तक एक दूसरे को प्रभावित करता है, जिसके कारण उनके जीने के मायने  और मकसद ही बदल जाता है, जिससे उनका वजूद  उनका न होकर किसी और के नाम गिरवी रखा जाता है।
जिंदगी आगे बढ़ी तो खपरैल का मकान पक्के और आलिशान मकान में तब्दील हो गया। परिवार के सदस्यों को ज्यों-ज्यों मंजिल मिलती गई, वे पारिवारिक कुनबे से दूर छिटकते गये। अतः अंत में बचे भाई साहब व भाभी जी। जब परिवार के सदस्य थे, तब तकरार के मुद्दे थे, अब जब सिर्फ दो थे तो दोनोंएक दूसरे के पूरक बन गए।
अब भाई साहब का अधिकांश समय भाभी जी के समीप ही गुजरता था। वजूद के उठापटक के बावजूद उनका आपसी प्रेम इतना अटूट व गहरा था कि भाई साहब पत्नी को गुड़ समझकर सदैव चींटा की भांति उस पर मड़राते हुए छाये व घेरे रहते थे। कभी पल भर को भी स्वतंत्र छोड़ना नहीं चाहते थे।
भाई साहब अपनी इच्छा के अनुरूप सारी खुशियाँ भाभी जी पर न्योछावर करना चाहते थे। चाहे वह उन्हें स्वीकार हो या न हो। प्यार थोंपने की चीज नहीं, बल्कि एक दूसरे की पीड़ा, दर्द और भावनाओं को समझने और कद्र करने का नाम होता है। इस कमी के कारण दोनों के तार बहुत करीब होते हुए भी वैसे नहीं जुड़ पाये जैसे उन्हें जुड़ना चाहिए था।
भाई साहब का स्वभाव चाहे जो हो, पर उनमें जो अच्छाइयाँ या संरक्षण के भाव थे, उसे भाभी जी समझती थी, तभी वे उस सहारे और संबल के अधीन अपना पूरा जीवन निर्वाह करना चाहती थी। एक बार उन्होंने दामाद अमित जी से कहा था,"जानते है भैया, मैं पहली बार इनके साथ घुमने गई, तो तेज चाल के कारण ये भीड़ में गायब हो जाते थे। उस समय मेरी निगाह इनके कालर पर टीकी रहती थी। उस दिन जो मैं इनके पीछे चली तो आज भी वैसे ही इनके पीछे चल रही हूँ।"
भाई साहब के इच्छाओं की अग्नि में अपनी इच्छाओं को स्वाहा करके भाभी जी ने जिस दृढ़ता से उनका साथ निभाया, उससे भाई साहब उनके कायल हो गये। एकदिन वे मृगनयनी से बोले," तुम्हारी भाभी जी आज भी जितनी कर्मठ है...उसका अंश मात्र भी तुम लोग नहीं हो। मैंने जिंदगी में जो कुछ भी किया...वह इनके सहयोग व स्वीकृति से किया। यदि ये मेरे साथ खड़ी नहीं होती,तो मैं कुछ नहीं कर पाता।"
मृगनयनी आश्चर्यचकित हो भाई साहब के बदले रुप को निहारने लगी। उसे खुशी मिली कि भाभी जी के अच्छाइयों को भाई साहब ने तहें दिल से स्वीकार कर सबके सामने व्यक्त करके वह किया जो उनके स्वभाव के विपरीत था। पर भाभी जी में कोई परिवर्तन या चमक नहीं दिखा। वक्त बीतने पर मिलने वाला यह उपहार शायद उनके लिए उतना उत्साहवर्धक नहीं था जितना होना चाहिए।
भाभी जी शिक्षित व दृढ़ संकल्पों वाली नारी थी। वे भी एक पुरुष के क्रोध के नीचे ऐसे दब गयी कि उनका मनमयूर अपनी मर्जी से पंख फैलाकर अंगड़ाई भी नहीं ले पाया। नारी की सहिष्णुता ही नारी की महानता होती है। भाभी जी की सहनशीलता व शालीनता के मध्य छुपे विवशता व अधीनता की पीड़ा को महसूस करने वाली मृगनयनी यह समझ नहीं पाती कि वह भाभी जी के कृत्य को क्या समझे और किस श्रेणी में रखें।
मृगनयनी इस परिवार की हिस्सा थी। उसके पति के रगों में वही खून बहता था, जो भाई साहब के खून में था। कभी-कभी या यूं कहे अक्सर उसे भी उन्हीं परिस्थितियों से गुजरना पड़ता था जिससे भाभी जी गुजरती थी। भाभी जी को देखकर मृगनयनी को एक सीख मिली। वह अपना वजूद निचोड़ या सिकोड़कर किसी के पास ऐसा गिरवी रखने के विपरीत थी, जिससे उसका खुद का अस्तित्व निरीह व निष्क्रिय बन जाए। वह सोच को इतना बलिष्ठ व सामर्थ्य बनाने के पक्ष में थी कि वह दिन रात के अंतर को समझ सकें। मृगनयनी ने इस सिद्धांत को अपनाकर अपनी सोच को एक नये मुकाम पर पहुँचाया।
जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर जब वे एक साथ थे तब सहयोग व सानिंध्यता के बलबूते अपने एकांत पलों में वे सिर्फ एक दूसरे के लिए जीएं। परंतु एक समय ऐसा आया जब शरीर ने बीमारियों से और मन ने चिंताओं से उन्हें मजबूर व अशक्त कर दिया। तब वे अपने अकेलेपन के असहनीय व बोझिल पलों को जीवंत करने के लिए अपना पारिवारिक कुनबा छोड़कर अपने बच्चों में अपनी खुशियाँ ढ़ूढ़ने बच्चों के पास आ गये। वे परिवार के मुखिया थे कभी उनका कुनबा सदस्यों से भरा था, जिसके कारण रौब व रुआब था।अकेलेपन के कारण उन्हें अपना कुनबा छोड़ना बहुत कष्टकारी लगा।
भाई साहब को कैंसर ने घेर लिया। भाभी जी को जब पता चला कि भाई साहब के कैंसर का आखिरी पड़ाव है,तब परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढ़ालने की उनकी दृढ़ता इस प्रकार मुखर हुई। वे मृगनयनी से बोली," दुलहिन, जिंदगी के इस विकट व असहनीय पीड़ा को सहने के लिए मैंने मन को कड़ा करके खुद को तैयार कर लिया है।
भाभी जी के कथनी और करनी के अंतर्द्वंद में जमीन आसमान का अंतर नजर आया। वे अपने मन की उथल-पुथल, कुड़बुड़ाहट व प्रबल इच्छा शक्ति को उर्जावान बनाकर एक निश्चित मुकाम पर पहुँचाने की ख्वाहिश रखती थी, जो उनके मन की मुराद पूरी कर सकें।
जिंदगी ने भाभी जी को जो दिया, उसे वे जी ली...पर जिंदगी के आखिरी पल का हार उन्हें कत्तई स्वीकार नहीं था। उनकी सुप्त व सिमटी भावनाएं अंदर ही अंदर धधककर दृढ़ इच्छाशक्ति रुपी ज्वालामुखी के समान फूट पड़ी। मौत को तो एक बहाना चाहिए था। कुदरत ने वह बहाना भाभी जी को दे दिया।
भाभी जी महसूस कर चुकी थी कि भाई साहब घातक बीमारी के सहारे आगे बढ़ रहे है, तब उन्होंने उनसे आगे जाने की होड़ में अपने शरीर को ऐसा अशक्त व कमजोर बना दिया कि वे खुद को सम्भाल नहीं पायी और बाथरूम में अचानक गिर गई। बाथरूम में गिरना तो एक बहाना था। उन्हें भाई साहब के पहले और भाई साहब के सामने विदा होना था...इसलिए वे चली गई... इस मायावी-मायाजाल वाली दुनियाँ, पति-बच्चों और परिवार को छोड़कर...।
अंत समय में भाभी जी की इच्छा पूरी हो गई। जीते जी शिकस्त के दामन में लिपटी भाभी जी को मौत ने जीत का सेहरा पहना दिया। एक अशक्त नारी ने सशक्त नारी का चोला चोला पहने कर दमकती नूर के साथ अपनी जिंदगी को विरामज लगाकर अपना परचम फहरा दिया।
भाभी जी के मौत के आगोश में समाहित होने की घटना अप्रत्याशित, अनहोनी व अचानक हुयी थी। इस घटना से भाई साहब ठगे रह गये। उन्हें भाभी जी द्वारा दी गई शिकस्त बर्दाश्त नहीं हुई। उनकी आत्मा इस सदमें को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। वे बिलकुल टूट चुके थे। अकेले पन का कोई साथी नहीं था। वे कहाँ रहेंगे... इस चर्चा ने उन्हें तोड़ दिया। इसके बाद पारिवारिक सदस्यों की टोली जब धीरे-धीरे खिसकने लगी, तब उनकी आत्मा को जोरदार करारा झटका लगा। उन्हें महसूस हुआ कि जिस पारिवारिक प्रेम के लगाव में डूबे हुए उन्होंने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय को लगाया था और वही उन्हें जीवनभर के लिए पत्नी का गुनहगार बना दिया...उसी पारिवारिक सदस्यों के पास उनकी पीड़ा को बाँटने के लिए दो-चार दिन का समय भी नहीं है। इस समय उनकी पीड़ा को समझने वाला यदि कोई था, तो वह थी...उनकी छोटी बेटी शुचि। मृगनयनी के साथ शुचि भी लौटने वाली थी, पर पिता के दर्द को आखिर उसकी आत्मा ने समझ लिया। तभी वह मृगनयनी के साथ वापस न जाकर वही रुक गई।
 एक-एक करके जब पारिवारिक सदस्य खिसक गये, तब उनके पास बचे सिर्फ उनका छोटा बेटा और छोटी बेटी शुचि। दिल के घाव नासूर बन चुके थे। सदमें की दोहरी पीड़ा जो उन्हें इस दौरान झेलनी पड़ी उससे वे उबर नहीं पाये और वही उन्हें ले ड़ूबी। शून्य में ताकती उनकी निराश निगाहों को तब एक ही उम्मीद की चमचमाती किरण दिखी..वह थी उनकी जीवनसंगिनी... उज्ज्वला... मृगनयनी की उज्ज्वला भाभी जी।
जीत की, समर्पण की, और सहूलियत की जो भावना व लगन भाई साहब में छुपी थी, जिसके कारण भाभी जी की दूरी उन्हें पलभर को भी स्वीकार नहीं था...समर्पण की उसी भावना के तहत अपने अनोखे बंधन की अमर गाथा को रचने के लिए वे भाभी जी का वियोग बामुश्किल आठ दिन का ही झेल पाये। उसके बाद वे रुके नहीं...वे भी चले गये... अपनी अर्धांगिनी के पीछे-पीछे...अपनी जीवन सहचरी के पास...।

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