जन्म हुआ है तो धीरे-धीरे बड़े होंगे ही। बड़े होंगे तो बचपन आयेगी, किशोरावस्था बीतेगी फिर युवावस्था को पार करके घर-गृहस्थी बढ़ायेंगे। इस प्रकार खट्टे-मीठे अनुभवों से आगे बढ़ती हुई जिंदगी एकदिन नाती-पोतों वाली होते हुए बुढ़ापे के दौर में कदम रखने लगती है।
बुढ़ापें में कदम रखना किसी के बस में नहीं है। जन्म लेने वाला हर व्यक्ति यदि जिंदगी की हरियाली व पतझड़ वाले मौसम को झेलते और खट्टे-मीठे व उँच-नीच अनुभवों को प्राप्त करता हुआ आगे बढ़ेगा, तो एकदिन वह बूढ़ा होगा ही। जब जन्म लेना किसी के वश में नहीं है, फिर बुढ़ापा आना किसी के वश में कैसे हो सकता है? यही नियति का खेल है। अतः बुढ़ापें के कटघरे में खड़ा होना किसी बूढ़े व्यक्ति का गुनाह नहीं है। इसलिए बूढ़े व्यक्ति को उसके बुढ़ापें की अवस्था में आने को गुनाह मानकर तिरस्कृत करना स्वयं में एक गुनाह को जन्म देना होता है।
बचपन, युवा, जवानी सारी जिंदगी लोग दूसरे लोगों को दायें-बायें करके जी सकते है, क्योंकि उस समय उनका तन और मन दोनों का मनोबल उँचा व सशक्त होता है। और चार लोग स्वयं प्रभावित हो कर जुड़ने की कोशिश करने लगते है। पर बुढ़ापें को निर्बल, असहाय और आश्रित जानकर लोग खुद ब-खुद दूर भागने, कतराने और तिरस्कृत करने की कोशिश करने लगते है। और बुढ़ों से सहयोग और सानिंध्यता की कौन कहे, उन्हें तो अकेलेपन का जीवन जीनें के लिए अकेले ही छोड़ देते है। जिंदगी का यही समय सबसे महत्वपूर्ण समय होता है जब अपनों की, सही सहानुभूति रखने वालों की और बूढ़ों को सच्चा मान-सम्मान देने वाले की पहचान होती है।
हर माँ-बाप अपने शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार अपने बच्चों के लालन-पालन में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। वे बच्चों में ही अपनी खुशी और अपना भविष्य तलाशते है। तभी तो वे अपने बच्चों के हर जिद के सामने झुकते नजर आते है। पर बूढ़ों के जवान होते शादीशुदा व बाल-बच्चों वाले पुत्रों के लिए यह जरूरी नहीं है कि जो व्यवहार व बर्ताव वे अपने बच्चों से करते है, वैसा ही बर्ताव वे अपने माँ-बाप या किसी बुजुर्ग से भी करे। बच्चों में यह अंतर आना लाजमी है, क्योंकि उनके सामने एक भविष्य है तो दूसरा भूतकाल। यही कारण है कि बच्चे इस उम्मीद पर खरे उतरे ये जरूरी नहीं होता है, क्योंकि युवावस्था में कदम रखने वाले उनके बच्चों के पास बूढ़े माँ-बाप के अतिरिक्त और भी बहुत से विकल्प होते है। बूढ़ों के बच्चों को अब अपने बच्चों का भविष्य सुगम व सुंदर बनाने की होड़ होती है। इसलिए उनका लक्ष्य विभिन्न हिस्सों में बँटता नजर आता है। यही पर युवा अपने जिम्मेदारी से चूक जाते है। वे अपने बुजुर्ग को उतना समय और सम्मान नहीं दे पाते, जितना उन्हें देना चाहिए। जबकि यह उनकी गलती है। उन्हें अच्छे संस्कारों को अपनाकर सामंजस्य स्थापित करना चाहिए और यही सही सीख अपने बच्चों को भी देना चाहिए। वैसे कहीं कहीं पर इसका उल्टा भी होता रहता है। कहीं कहीं पर शादीशुदा बच्चे अपने बुजुर्ग से इतना ज्यादा जुड़े होते है कि उनका परिवार स्वयं को तिरस्कृत महसूस करता है। तकरार की स्थिति यहीं पैदा होती है। इसलिए दोनों परिस्थितियों में सामंजस्य की अवस्था बहुत जरुरी होता है।
यही पर समझदारी और सहूलियत के आधार पर बड़ों को थोड़ा सा मान-सम्मान देने से तकरार की स्थिति को टाला जा सकता है। जो बुजुर्ग जिंदगी भर अपने बच्चों पर समर्पित रहते है, वे अपने बच्चों का अहित कभी नहीं चाहेंगे। वे तो बस अपने मान-सम्मान और अपने इज्ज्त की कामना करते है। थोड़ी सी समझदारी अनुकूल असर ड़ालती है और बुजुर्गों और परिवार दोनों को संतुष्ट करती है।
वैसे बच्चों को पालने और बूढ़ों की सेवा में बहुत अंतर होता है। बच्चे अबोध व अज्ञानी होते है, उन्हें समझ की पहचान नहीं होती और माँ-बाप भी उनके जिद व आग्रह के आगे सहर्ष झुके हुए और बहुत खुशी से शहीद होते हुए नजर आते है। पर बूढ़े तो हर तरीके के अनुभवों से पूर्ण होते है। तभी तो उन्हें सही-गलत, उँच-नीच की अच्छी जानकारी होती है। तभी तो उन्हें अपने अनुरुप ढ़ालना कठिन होता है। बूढ़ों पर जब दूसरे अपनी मनमानी थोपने का प्रयास करते है, तो वह इंकार व विरोध दोनों करते है, क्योंकि उनकी समझ से वह उचित नहीं होता है जो उनके बच्चे सोचते है। तभी तो तकरार की नौबत आती है। जो कभी स्वयं का स्वतंत्र जीवन जी चुका होता है, उन्हें जब बच्चों के द्वारा दबाव का जीवन जीना पड़ता है, तो वह उन्हें अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध बड़ी साजिश लगती है। क्योंकि उनके इंकार को उचित सम्मान न देकर बच्चे जब अपनी मनमानी चलाते है, तब बुजुर्गों के सोच पर गाज गिरती है। ऐसे समय में वे अपने मनोस्थिति को सम्भाल नहीं पाते और कुंठाओं से ग्रसित होने लगते है।
बूढ़ा होना अभिशाप है या वरदान? यह कोई और नहीं बता सकता है। यह तो सिर्फ भुक्तभोगी बूढ़ा ही अपने बुढ़ापे के दौर से गुजरते हुए बता सकता है कि उसका अनुभव क्या कहता है? यदि परिवार के सदस्य उनकी भावनाओं की कद्र करते है और वह स्वयं भी अपने को सशक्त बनने, खुशहाल रहने और जिंदगी की जीवन्तता को जीवन्त करके अपना जीवनयापन करता है, तो उसका बुढ़ापा वरदान है। पर यदि बुढ़े व्यक्ति का परिवार उसको तिरस्कृत जीवन देता है और वह स्वयं भी अशक्त, बीमार और हतोत्साहित होकर अपना जीवन बीताता है, तो समझो वह इसी जीवन में नरक को आमंत्रित करता है।
आज हम शिक्षित, सभ्य, समझदार, तर्कदार होते हुए भी कितने अशिक्षित है, जो अपने बुजुर्गों से सही व्यवहार नहीं कर पाते है, तो हम अपने बच्चों में अच्छे संस्कार कैसे भर पायेगे? फिर हमारा भविष्य सुरक्षित है या नहीं... यह हम कैसे और किस स्तर पर सोचकर सुनिश्चित और सुनियोजित कर पायेंगे। बच्चे और बूढ़ो के सामंजस्य और तकरार की कहानी नई नहीं बल्कि पुरानी है। और यह किसी एक घर की कहानी नहीं है, बल्कि यह बहुतायत में फैला हुआ एक रोग है, जिसके कारण अधिकांश बुजुर्गों की टोली को वृद्धाश्रम में पनाह मिलती है, जो घर में नहीं मिल पाती है।
फिर किसी बूढ़े को बूढ़े होने की सजा क्यों देते है लोग? क्या उसे यह भी याद नहीं रहता कि एकदिन इसी स्थिति से उन्हें भी गुजरना होगा उसका भी वही सब मंजर होना और झेलना पड़ेगा, जो मंजर वह किसी बूढ़े को दिखा रहा है। इसीलिए अच्छा करोगे तो अच्छा ही पाओगे।।
अतः किसी बूढ़े को उसके बुढ़ापें की सजा देना कहाँ तक उचित है????? जबकि एक समय बाद उसी दौर से जब स्वयं को भी गुजारना और वही दर्द झेलना,सहना और महसूस करना पड़ेगा। और बूढ़ों में भी इतनी समझ होनी चाहिए कि वह अपने हठ, उलझी हुई बातों में अपने बच्चों को उलझाने की अपेक्षा सहयोग की भावना रखें।
ताली दोनों हाथ से बजती है इसलिए दो पीढियों में सामंजस्य स्थापित करना बहुत जरूरी है।
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