प्रकृति के आगोश में (कविता)

मैं आशा व उम्मीद की गठरी ले,
भटक रही थी, चारों ओर।
प्रकृति ने आकर्षित करके मुझे,
बाँध लिया अपने आगोश में।

प्रफुल्लित मन ने हाथ बढ़ाया,
छू लेने को नीला आकाश,
तो आकाश ने आभास कराया,
नीले रंग में है, बहुत विस्तार।

आगे चली, तो झूम उठी, जब,
फैलाकर मैं अपना दोनों हाथ,
हवा के मस्त झोंकों ने भर दी,
झोली में मेरे ,उमंग व उल्लास।

नदी की ठंड़ी शीतल जलधारा में,
मैं उल्लसित हुई, पाकर शीतलता,
तब बहती लहरों ने हमें सिखाया,
निरंतर गतिशील होने का सार।

इंद्रधनुष के विशाल रुप में दिखा,
सुंदर सामंजस्य सात रंगों का।
मैं निखर गई सप्त रंगों के संगम सी,
बिखराकर अपना मोहक रुपजाल।

देखकर पर्वतों की शीर्ष श्रृंखलाएं,
अचम्भित हो गया व्याकुल मन।
पाकर एक नया अनूठा आकर्षण।
उँचाइयों ने हर लिया,सारा संताप

झर झर बहते झरनों का पानी,
बलखाती गिरती,उपर से नीचे। 
देखकर उसका अदम्य साहस,
मैं प्रफुल्लित हो, हिम्मती बनी।

समुंद्र की विशालता में, ड़ूबी हुई,
उँची-नीची लहरों सी चंचल हो।
तरंगित होता रहा मन उपर-नीचे,
तब मैं ठिरकने लगी झुमती हुई।   

प्रकृति ने बहुत सीखाया है मुझको,
अपने साहचर्य के बंधन में बाँधकर,
मेरे जीवन का बहुआयामी व्यक्तित्व,
निखरने लगा, प्रकृति के आगोश में।

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