कभी किसी
भी वक्त,
प्रिय दोस्तों
के घर जाकर,
पाते थे हम
भरपूर सुकून,
अपने ही
घर जैसा।
चाय सुड़कते थे
बड़े प्रेम से,
खाते-पीते थे
तसल्ली से।
कभी यूं ही
बेफिक्र होकर,
समा भी जाते थे
नींद के आगोश में।
लगाते थे
बेफिक्री में,
कहकहे भी
दिल खोलकर।
कश भी लगाते
धुँआ भी उड़ाते,
थे बड़े चैन
और आराम से।
दोस्तों के पास
मिलता था,
दुख-दर्द का
समाधान भी।
आया समय
बदलाव का,
बँध गए सब
नये बंधनों में।
बिछुड़ गए
साथियों से,
फिर दूरियाँ
भी बढ़ गई।
अपने ही
जंजाल में,
सब व्यस्त हो
फँसते गये।
ढ़लते उम्र के
पड़ाव पर,
साथी मिले फिर
कुछ पुराने व नये।
नये ठौर व
उम्मीदों के साथ,
हम दोस्तों में
फिर बँधने लगे।
दोस्त क्या
मिले,
बुझते दीपक
फिर जलने लगे।
दोस्ती फलने
फूलने लगी,
दिन मस्ती में
कटने लगी।
गुनगुनाना
भी वही,
ठहाका
भी वही हो गया।
उम्र के इस
आखिरी दौर में,
हम व्यस्त हो गये,
नई जागृति के साथ।।
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