मेरा बेटा शीतांशु गुड़गांव से अपने परिवार के साथ छुट्टियों में मेरे पास आया और दो-तीन रुककर परिवार को मेरे पास छोड़कर अकेले गुड़गांव वापस चला गया। शीतांशु की तीन वर्षीय बेटी आरुषि बहुत ही प्यारी,चंचल, बातूनी थी। वह हम लोगों से काफी घुलमिल गई। अतः वह अधिकतर मेरे पास ही रहती थी और अपनी शैतानियों से हम लोगों का मन बहलाती थी।
करीब बीस-इक्कीस दिन बाद शीतांशु वापस आया। पापा को पाकर आरुषि बहुत खुश हो गई। थोड़ी देर बाद वह हाथ में गुड़िया और दो-तीन खिलौना लेकर मेरे पास दौड़ती हुई आयी और बेड पर खिलौनों को पटकते हुए बोली, "दादी, ये देखिए।"
मैं खिलौनों को देखकर अनजान बनते हुए उससे पूछी," ये क्या है?"
आरुषि बोली, "ये गुड़िया और ये मेरे खिलौनें है। देख लीजिए, ये मेरे पापा गुड़गांव से मेरे लिए लायें है।"
उसी समय शीतांशु कमरे में आ गये। शीतांशु को देखते ही वह चहककर बोली, "दादी, देखिये, ये ही मेरे पापा है। आप इन्हें पहचान लीजिए। ये गुड़गांव में हम लोगों के साथ बिल्डिंग वाले मकान में रहते है। इन्होंने ही मुझे ये सारा समान दिया है। ये बहुत अच्छे है।"
नये अंदाज में अपने ही बेटा के नये रुप का परिचय अपनी पोती के मुँख से सुनकर मैं आत्मविभोर हो उसे एकटक देखने लगी। फिर उसे गोद में लेकर चूमने और पुचकारने लगी।
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