पति के घूरती तिरछी नजरों का असर (व्यंंग्य)

व्यक्ति चाहे कोई भी हो, किसी भी स्तर का हो...खुले दिमाग का हो या संकुचित विचारधारा में बंद हो, पर यदि उसके माथे पर पति होने का ठप्पा लग गया है, तब वह शहंशाह है और पत्नी उसकी सम्पत्ति है। यह किसी एक की बात नहीं है, बल्कि यह तो जमाने से चली आ रही एक सोची-समझी और अमल में लायी गई रणनीति है। जो पुरुष वर्ग की सामाजिक श्रेष्ठता को दर्शाता है। जो स्वयं पुरुष द्वारा निर्धारित की गई नीति है। जिसका पालन करना हर पुरुष वर्ग अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझता है। तभी तो वह जब चाहे, जहाँ चाहे अपनी पत्नी को तिरछी तरेरती हुई नजरों से घूर सकता है।
तभी तो पति अपनी पत्नी को सुरक्षित और अपने संरक्षण में अपने अधीन रखना चाहता है। और तब पहले की पत्नियाँ भी पति के संरक्षण में अपने को सुरक्षित महसूस करती थी। इसलिए पति के उँच-नीच, सही-गलत सभी फैसले को आँखे मूंदकर मानने को विवश हो जाती थी, तभी तो पत्नी को डराने-धमकाने के लिए एक तरेरती हुई तिरछी नजर एक हथियार की तरह अमल में लाया जाने लगा। और यह हथियार कारगर सिद्ध भी हुआ और अपना असर भी दिखाने लगा।  
 
पहले का जमाना था, पत्नी स्वयं को भी अपने पति की पूंजी मानती थी। तभी तो ससुराल में पति के मनमाफिक कोई काम न होने पर पति अपनी  खामोश, तिरछी, आँखों से मात्र एक पल के लिए ही सही बस जब पत्नी को घूर देता था, तो उसका असर कुछ इस कदर पत्नी के दिल-दिमाग पर छा जाता कि पति से नजरें चार होते ही पत्नी खौफ खा जाती थी। वे बिना पति के बोले ही पति का इशारा और इरादा समझ जाती थी कि पति क्या चाहता है, तभी तो वे झटपट उस आशय को पूरा करने की उम्मीद में पूरी तल्लीनता से जुट जाती थी। वे इतने खौफ में होती कि पति के इच्छा के विरुद्घ शौचालय भी जाना हो, तो वे उसे भी रोक लेती थी। उनमें इतनी हिम्मत नहीं बचती थी कि पति से यह कह सकें कि पहले शौचालय, फिर आपका काम। वे शादी के बाद से ही इतनी तोड़-मरोड़ दी जाती थी कि उन्हें सांस लेने की फुर्संत भी न मिले और सारा काम भी हो जाएं। ताकि वे मात्र एक कठपुतली बनकर जी सकें।
 यद्यपि आज के बदले माहौल में आधुनिक पति का गुरुर कुछ कम जरूर हो गया है,पर वह पूरी तरह बेअसर हो गया है...यह हम कह नहीं सकते है। परंतु पहले वाले पति अभी अपने पुराने स्थिति में ही होते है, तभी तो उम्र के एक लम्बे पादान को पार करने के बावजूद आज भी बहुत सी उम्रदराज पत्नियाँ अब भी पति की घूरती खामोश निगाहों से खौफ खाती है और सहम जाती है। पहले यह खौफ भयानक होने के साथ ही बहुत कुछ समझाने वाला होता था, तभी तो नजर मिली नहीं कि असर जल्दी-जल्दी शुरू हो गया और पति को खुश करने के चक्कर में काम जल्दी-जल्दी शुरू हो गया।
 
समय बदलता गया। बीच के समय की जो पौढ़ महिलाएं है, वे आज भी खौफ खाती है, पर उतना नहीं जितना उनसे पहले की महिलाएं खाती थी। बीच की स्थिति भयानक होती है, क्योंकि उनका कोई एक अपना नीजी अस्तित्व नहीं बनता। कभी वे पुरानी परंपरा में घुस जाती है, तो कभी आधुनिकता का लिबास पहनकर अकड़ने लगती है। तभी तो वे बीच मझधार में डूबती-उतराती दिखती है। ऐसी पत्नियों के पास पहले तो सिर्फ अपने ही बच्चे थे, जिसके कारण कहीं कोई कमी दिखती या पति के इच्छा के विरुद्ध जाती, तो पति का काम बस इतना था कि वह पत्नी को तिरछी नजर से घूर बस दे...फिर पत्नी की औकात ही कहाँ जो इन  नजरों की अवहेलना कर सकें। पर अब परिवार का दायरा बढ़ गया है। बेटा-बहू के साथ पोते-पोतियों की संख्या भी बढ़ गयी है। इसलिए पति के घूरती निगाहों का दायरा भी बढ़ गया है। पति के इस नाजायज शह का असर बच्चों पर भी पड़ने लगता है, तभी तो बहुत से घरों में बच्चे भी माँ का आदर उतना नहीं कर पाते, जितना सम्मान उन्हें अपनी माँ को देना चाहिए। अपने परिवारी जनों की ये चौतरफा मार बहुत सी स्त्रियाँ आज भी झेलती है।
पर आधुनिकता के इस दौर में समय की बिसात पर बिछी गोटियों के अधिकार, कार्य करने क्षमता, लोगों के प्रति बदले भाव जब बदले-बदले नजर आने लगे, तो पत्नियों को भी अपने को बदलना जरूरी हो गया। आज की पत्नियाँ पति के खौफ वाली निगाहों से डरती नहीं है बल्कि स्वयं भी आँखें तरेरने का दम रखती है। तभी तो कई जगह आधुनिक पति अपनी पत्नियों के सामने भींगी बिल्ली बनें दिखते है।
यह समय घालमेल का मिश्रण है। एक ही परिवार में दो तरह की पत्नियाँ दिख जायेंगी। एक खौफ खाती हुई, तो एक खौफ खिलाती हुई। सास-बहू के न पटने का एक कारण यह भी होता है।
 
अब पुरानी पत्नियाँ भी पति की घूरती निगाहों के खौफ से  उतना नहीं डरती है, जितना पहले डरती थी। क्योंकि आधुनिकता के रंग में अब वे पत्नियाँ भी  रंगकर ढ़ीठ हो गयी है। अब बात-बात में पति की घूरती निगाहें जब घायल करने को होती है, तब उस भाव को समझकर वह पहले ही अपनी नजरें चुरा लेती है। उन एकटक देखती नजरों से अब अपनी नजरें टकराती ही नहीं है, ताकि खौफ का जो मंजर पहले से छाने वाला हो, वह बेअसर हो जाये।
आज समय बदल गया है। आज पति का यह हथियार जंग खाकर म्यान में पड़ा-पड़ा अपने किस्मत को कोस रहा है, क्योंकि जब भी वह म्यान से निकलने की कोशिश करता है, तो पत्नी की ढ़ाल की तरह तरेरती नजरें या पत्नी की वाक्पटुता के आगे ठंड़ी पड़कर वह स्वयं ही म्यान में दुबुक जाता है। 
 
ये समय की माँग भी है। जब पति-पत्नी साथ में चलने वाले सहयात्री है, तो समता का व्यवहार होना लाजमी है। पर पलड़ा बराबर का ही होना चाहिए। एक की ज्यादती सिर्फ अन्याय कहलायेगा और असहनीय भी होगा, क्योंकि आजकल की लड़कियाँ भी कम खुराफाती नहीं होती। अपने स्वतंत्रता का वे गलत प्रयोग करती कहीं ना कहीं दिख ही जाती है, जिसका खामियाजा पति के साथ-साथ बच्चे और परिवार के अन्य सदस्यों को भी भुगतना पड़ता है।
अतः निष्कर्ष यही है कि रेल की समानांतर चलती हुई पटरियों की भांति पति-पत्नी को अपने बर्ताव में, व्यवहार में सामंजस्य स्थापित कर साथ-साथ समान भाव से समझना-चलना और व्यवस्थित करना चाहिए। तभी एक  खुशहाल परिवार की नींव पड़ सकती है।

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