अपने शयनकक्ष में नितांत अकेली उदास बैठी मैं अपने शयनकक्ष की दिवारों को एकटक निहारती हुई यादों के भँवरजाल में गोते लगा रही थी।
मेरे शयनकक्ष की दिवारें बच्चों द्वारा बनाई गई ढ़ेर सारी रंग बिरंगी, सुंदर कलात्मक कलाकृतियों से, जैसे--आड़ी-तिरछी लकीरें, गोजा-गाजी का घालमेल, क.ख.ग.घ.ङ, A.B.C.D, 1.2.3.4..गिनती तो कहीं फूल-पत्ती, चूहा-बिल्ली, तो कहीं मम्मी-पापा, दादा-दादी, दीदी, भैया आदि के तस्वीरों से रंगीन थी।
कभी एक समय ऐसा था जब मैं अपने नाती-नातिन, पोते-पोतियों के द्वारा बनाते, गढ़ते, रंगते इन कारगुजारियों को देखकर रोमांचित होती थी और भावनाओं और भावुकता में बहकर इन बच्चों के साथ-साथ अपने बच्चों के बचपन को भी याद करके कितनी सरलता, तन्मयता और आत्मिकता से जी लेती और खुश भी होती थी। कितनी रंगीन और खुशहाल थी...इन छोटी-छोटी खुशियों से सराबोर थी मेरे और मेरे परिवार की होली और दिवाली। पर आज वो समय है...जब बच्चों के खेलते-कूदते, चहकते और ढ़ेर सारी शैतानियों के शोर से गूंजता मेरा घर...बच्चों के विदेश में बसने और रमने के कारण उनकी अनुपस्थिति में एकदम मेरी ही भांति अजलस्त व उदास होकर एकदम खामोश हो गया है।
बार-बार आने वाली दीपावली का त्यौहार एक बार फिर आ गया। घर में सफाई होना जरुरी था। सफाई और दीवारों की पुताई होने लगी। पूरी लगन व तत्परता से अपने घर की सफाई के अभियान में मैं भी जुट गयी, पर बच्चों की मासूमियत भरे इन कारगुजारियों पर न तो मैंने किसी को नजर लगाने दी और न किसी को मिटाने की अनुमति दी। क्योंकि यही कारगुजारियां मेरे खामोश जिंदगी में रंग भरने वाली संजीवनी बूटी थी, जो हर पल मुझे जीवंत करती थी। इसलिए अब, जब तक यह इस घर में हैं, तभी तक मेरे फड़फड़ाने की पूरी उम्मीद व खुशी इस घर में जागी हुई है।
इस साल फिर दीपावली आ गई। इस साल मैंने फिर इन कलाकृतियों को अपने जिद और तत्परता से मिटने से बचा लिया...क्योंकि मैं अपने उन्हीं नन्हें-मुन्नों बच्चों के अनुपस्थिति में उनके इन कलाकृतियों में छुपकर अपने आँसुओं को पोंछिती हुई उसे अपने आँचल में समेट कर जीवंत होती हूँ और होती रहूंगी...।
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