तुम्हारे पास बेटी है (लघुकथा)

कृतिका के दो बेटा और एक बेटी है। उसकी सहेली सलोनी के पास तीन बेटा और देवरानी सुरभि के पास दो बेटा है। कृतिका बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं मानती थी इसलिए उसने दोनों के परवरिश में कोई भेद नहीं किया। कृतिका का जब भी सलोनी और सुरभि से अंतरंग या पारिवारिक बातों की नोक-झोंक होती तो वे दोनों बहस के अंत में यही कहती," कृतिका बहुत अच्छा हुआ जो तुम्हारे पास बेटों के साथ ही बेटी भी है। हमें बेटी की कमी खलती है। हम अपने इस दर्द, कमी और अंतर को समझते और महसूस भी करते है अतः तुम्हारी बात से सहमत नहीं हैं।"
कृतिका दोनों के मर्म को समझ नहीं पाती थी। इसलिए वह उन्हें समझाते और सांत्वना देते हुए बोलती,"कैसी बात करती हो, तुम? अब बेटा-बेटी में अंतर ही कहाँ होता है? माँ-बाप बेटा-बेटी को समान लाड़-प्यार, अधिकार और एक ही समान परवरिश देते है, फिर उनमें अंतर कैसा? "
कृतिका के तर्क पर दोनों चुप हो जाती,कहती," तुम्हारे पास बेटों के साथ-साथ बेटी भी है, इसलिए तुम इस अंतर को समझ नहीं पाती हो। पर हमारे पास बेटी नहीं है। हमें ये कमी खलती है। यदि कभी बेटा-बेटी में कहीं कोई अंतर महसूस करना, तो जवाब जरुर देना। हमें उस पल का इंतजार जरुर रहेगा।"
कृतिका को दोनों की बातें चुभती थी, इसलिए याद भी रहती थी क्योंकि बेटा-बेटी अक्सर उनकी बातों के मध्य आ ही जाते थे।
पर कृतिका के विचारों के लिए वक्त ने उस समय उस दिन करवट बदला जब उसने अपनी बेटी वान्या को अपने घर से विदा किया। वह समझ गयी कि बेटी पराया धन होती है, इसलिए अपना समझने के वाबजूद भी उसे सामाजिक बंधन में बांधना ही पड़ा। वह शादी के बाद अपने ससुराल चली गई। बेटी के जाने के बाद कृतिका अपने मन को सांत्वना देती कि बेटी अपने परिवार में खुश रहे। यही उसकी संतुष्टि है। उसके दोनों बेटा उसके पास तो है ही इसलिए वही उनके बुढ़ापे की लाठी बनेंगे।
पर होनी का संयोग ही था कि बेटी-दामाद की नौकरी उसी शहर में लगी जिस शहर में कृतिका रहती थी। दोनों बेटा भी नौकरी करने लगे।
समय बीतने लगा। सभी बच्चों की शादियाँ हो गई। वान्या अपने पति, सास-ससुर और दो बच्चों  के साथ अपने घर में रहती थी।पर वक्त-वेवक्त वह मायके जाना नहीं भूलती थी। वान्या अपने नौकरी के साथ-साथ अपने सास-ससुर और माँ-पापा का बराबर ध्यान रखती। वान्या और उसके पति कभी कहीं बाहर घुमने जाते तो बुजुर्गों को भी अपने साथ ले जाते। इस तरह बुजुर्गों में भी आपसी प्रेम, सहयोग और सांनिध्नता बढ़ने लगी। सफर के मध्य में अधिकांश ऐसे लोग मिल जाते जो दोनों परिवार के बुजुर्गों के साथ-साथ सफर करने पर प्रश्न चिन्ह लगाते तब मन ही मन उल्लसित होने वाली कृतिका इसका श्रेय बेटी और दामाद के सम्मलित सकारात्मक सोच को क्रियान्वित करने वाली उपलब्धि को देती, जिसके कारण  दोनों परिवार के बुजुर्गों को साथ-साथ रहने, समझने, घुमने और मनोरंजन करने का अवसर मिलता था।
जहाँ तक कृतिका और उनके पति की देखभाल का सवाल उठता वहाँ उनकी देखभाल बेटा-बहू भी करते थे। पर जहाँ तक अंतरंगता और आवश्यकता की महत्वपूर्ण निजी बातें होती, वहाँ कृतिका को अब बेटा-बेटी में अंतर साफ नजर आने लगा। अनुभव बहुत कुछ सिखाता है। बहुत से क्षणों पर ये अंतर महसूस करने वाली कृतिका को आखिर अपना विचार बदलना ही पड़ा। अंतत मुदित मन से उसने सलोनी और सुरभि को अपना जवाब दे ही दिया," तुम लोगों की सोच सही थी। बेटों के साथ बेटी का होना बहुत महत्व रखता है। मैं बहुत खुश हूँ कि मेरे साथ बहुत ही अच्छा ही हुआ जो मुझे बेटों के साथ-साथ बेटी भी मिली है।"

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