पल-पल मैं प्रेमिका को ढ़ूंढ़ रहा हूँ,
ले व्याकुल मन की मौन स्वीकृति।
रिक्तिता का बोध कराता मेरा मन,
उसके संबल की राह है ताकता।
अधखुली आँखों में सपनें लेकर,
करवटें बदलता रहता हूँ निशदिन।
आभास मचलता है, रोम-रोम में,
सिलवटें कहती वह तेरी ही है।
बजती है जब घुँघरुओं की छम।
उसके आने का आभास लगता,
पागल मन का पागलपन है यह,
उससे मिलने को आतुर है जब।
जलते दीप का टिमटिमाता लौ,
अधियारे पल में आस दिखाता।
आगे बढ़ाता हूँ कदम जो अपना,
वह छुपकर बहुत तड़पाती है।
आँखमिचौली भाती नहीं है उसकी,
पर दिल से छूटता नहीं मूक समर्पण।
आलिंगन के घेरे में बाँधकर उसको,
झूम उठने को मचलता है विह्वल मन।
बहुत हो गया अब मौन आमंत्रण,
प्रेयसी हो, कुछ तो सम्मान करो।
सिमट आओ, आकर बाहों के घेरे में,
चितवन मन में, थोड़ा तो विश्राम करो।
1 टिप्पणी:
Bahut achchhi rachna.
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