प्रतिबिम्ब (लघुकथा)

एकदिन माला अपने इकलौते दुलारे बेटा कौशल से बातें कर रही थी। वह कौशल को दुलराते हुए बोली,"कौशल बेटा, जब तुम पढ़-लिखकर कुछ बन जाओगे, तब हम तुम्हारी शादी करके तुम्हारी बहुत प्यारी सी सुंदर दुलहिनियाँ लायेंगे। जो चहकती व इठलाती हुई घर की रौनक बढ़ायेगी और हमारी सेवा करेगी। उस समय हम चैन से जिंदगी बसर करते हुए आराम करेंगे और मस्ती मारेंगे। बहुत मजा आयेगा।"
यह सुनकर कौशल शांत और सधे स्वर में बोला," माँ, पहले यह बताओं कि कहीं वह तुम्हारे उम्मीद के विपरीत... बिलकुल तुम्हारी सोच वाली होगी , तो तुम्हें भी वही सब कुछ झेलना व करना पड़ेगा, जो दादी इस समय झेलती व करती है। फिर तुम क्या करोगी? तुम्हारा तो सपना ही टूट जायेगा।"
बेटा के मुँख से यह सुनते ही माला चौंककर बेटा को निहारने लगी। अपने बेटा के द्वारा दिखाये गये अपनी कलुषित मानसिकता के परिवेश में पनपते और विकृत होते अपने भविष्य के छवि की नींव अपने ही बेटा के द्वारा प्रतिबिम्बित होते देखकर उसका चेहरा मलिन हो गया। माला सोचने के लिए मजबूर हो गई।
अब माला को अपने बेटा के सोच को बदलने और अपने उज्जवल भविष्य की रुपरेखा निमित्त करने हेतु अपने सोच और व्यवहार में परिवर्तन लाना अनिवार्य हो गया।
 माला अपने सुंदर और अच्छे व्यवहार से अपने परिवार को अच्छे संस्कार में ढ़ालने का प्रयास करने लगी। उसके आचरण से परिवार में खुशहाली आ गई। माला अपने में आये इस परिवर्तन का श्रेय अपने बेटा को देती है, जिसके दिखाये प्रतिबिम्ब से उसका आचरण ही बदल गया।

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