हे प्रेयसी (कविता)

हे प्रेयसी,
कहाँ छुपी बैठी हो ?
जाने कब से,
ढ़ूढ़ रहा हूँ तुम्हें...

हवा के झोंकों में,
उमड़ते बादलों में,
बरसते फुहारों में,
उमड़ती नदियों में

सूरज की तपिश में,
चादँ की चाँदनी में।
दिन के उजाले में,
रात की कालिमा में

अम्बर के विस्तार में,
तारों के झुरमुट में
धरा की खामोशी में,
समुंद्र की गहराई में।

फूलों की खुशबू में,
काँटों की चुभन में।
कलियों के खिलने में,
भौरों के गुनगुनाने में।

हे प्रेयसी, 
अब तो आ जाओ...
आओ और आकर...
प्रेम का अखंड 
दीप प्रज्वलित कर,
मेरे जीवनपथ को 
आलौकित कर दो ।।

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