सुधा के घर में रखी सुराही को ढ़कने वाली कटोरी हमेशा गर्व व घमण्ड से इतराती थी कि वह पानी से लबालब भरे सुराही के मुँख पर बैठकर सुराही का सदैव सच्चा साथ निभाती है, इसलिए वह कभी भी प्यासी नहीं रह सकती।
पर उसे एकदिन ऐसा महसूस हुआ कि वह प्यासी है...धीरे-धीरे उसे और प्यास लगने लगी। लेकिन वह चुपचाप सिर्फ इस इंतजारी में खामोश बैठी थी कि वह सुराही की प्रिय सहयोगी और साथी है...इसलिए सुराही उसके साथ होने के एहसास को महसूस करके कभी ना कभी उसे पानी पिलाकर उसकी प्यास बुझाकर तृप्त कर ही देगी...पर कटोरी देखती कि सुराही अपने सामने आने वाले हर प्यासे कटोरी-गिलास को भरकर उसका प्यास बुझा देती है, पर उस पर ध्यान देकर कभी पूछती भी नहीं है।
एकदिन निराशा व खुन्नस से भरी कटोरी के सब्र का बाँध जब टूटकर बिखरने को हुआ तब वह सुराही से बोली," बहन, मैं प्रतिदिन तुम्हारे साथ रहकर तुम्हारा सहयोग व साथ निभाती हूँ, पर तुम्हें मेरी याद कभी भी नहीं आती कि मैं भी प्यासी हो सकती हूँ और मुझे भी पानी की जरुरत होती है। तुम तो केवल उसी की प्यास बुझाती हो जो तुम्हारे सामने आकर तुमसे पानी ले जाता है।"
कटोरी की खिज भरी बातें सुनकर सुराही मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोली," बहन, तुम मेरे साथ रहती तो हो, पर सदैव अपना अधिकार जताते हुए मेरे सर पर सवार रहती हो। जबकि सामने वाली कटोरी या गिलास नम्र निवेदन व सहूलियत से पानी की अभिलाषा करती है, इसलिए मैं झुककर उसे पानी देने में आनाकानी नहीं करती हूँ। बहन कुछ पाने के लिए नम्रता का व्यवहार आना चाहिए, न कि अधिकारपूर्वक सर पर सवार होकर इतराना चाहिए।"
कटोरी चुप हो गयी। तभी सुधा जी सुराही के पास आयी। उन्होंने कटोरी को नीचे उतार कर सुराही के सामने किया तो सुराही झट से झुककर कटोरी को लबालब पानी से भर दिया। कटोरी तृप्त हो गयी। उसे अपने भूल का एहसास हो गया। अब वह सुराही के सर पर बैठने से इंकार कर दी।
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