सुखद अनुभूति (संस्मरण)

शादी के बाद बी.एड. करने के लिए मैं ससुराल में रुक गयी और ये छुट्टियाँ समाप्त होने पर चले गये। उस समय न मोबाइल की सुविधा थी और न ये जल्दी आ पाते थे। ऐसे समय में पत्र ही एक मात्र ऐसा साधन था, जिसके द्वारा मन की भावनाओं को व्यक्त करना पड़ता था। अपने लम्बे-लम्बे पत्रों का जवाब संक्षिप्त चंद लफ्जों वाला पाकर मन खिन्नता में ड़ूब जाता और खुद को लुटी-पीटी सी महसूस करती, क्योंकि मुझे प्रेम-भरी भावनाओं से ओतप्रोत लम्बे पत्र की इंतजारी रहती थी।
एकदिन गुस्से में मैं कोरे कागज पर सिर्फ "........" बनाकर पत्र की तरह भेज दिया। 
और सोचने लगी, 'देखू...बच्चू अब क्या जवाब देते है।' 
मैं पत्र की बेसब्री से इंतजारी करने लगी। पत्र तो मुझे नहीं मिला, पर एक सप्ताह बाद एक दिन जब आँखें खुली तो बाहर से आती इनकी आवाज सुनकर मैं दंग रह गई क्योंकि इन्हें तो अभी आना नहीं था फिर ये कैसे?
एकांत पलों में ये बोले," कोरे कागज पर इतना कुछ लिखा था कि मैं अपने को रोक नहीं पाया और आ गया तुम्हारे पास, तुम्हारी बाहों में समाने।"
पति के प्यार भरी भावनाओं को महसूस करने की जो सुखद अनुभूति मुझे उस समय मिली, उससे बढ़कर कोई और उपलब्धि मेरे लिए हो ही नहीं सकती थी ।
 

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