मोंगू मुर्गा कुकडू कूं बोलता है,
सूरज को देखकर सोचता है।
मेरी ही बाँग को सुनकर,
सोता सूरज जाग जाता है।
सूरज किरणें बिखेरता है,
तब चाँद कहीं छुप जाता है
पृथ्वी दम-दम दमकता है,
चिड़िया चह-चह चहकती है।
भौरा गुन-गुन गाता है,
आदमी काम पर जाता है।
नये उमंग, नये उत्साह से,
सबमें उत्साह भर जाता है।
मोंगू अकड़-अकड़कर चलता है,
बाँग को सिंहनाद समझता है।
लाल कलगी के अकड़पन में
वह फिर कूकड़ू कू चिल्लाता है।
मोंगू इतराता है, फिर सोचता है,
जादू है, मेरे कुकड़ू कूं की बोली में।
जो सूरज को रोज जगाता है,
अंधेरे को उजाला में बदलता है।
1 टिप्पणी:
अच्छी कविता
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