भोला सा था
सलोना भी था
जो था मेरा बचपन, वह कब का बीत चुका।
अल्हड़ सा
अलसाया सा
जो यौवन था कभी मेरा, वहीं आया, फिर रुठ गया।
पर खामोश सा
मुरझाया सा
बुढ़ापा आया मेरा और आकर ठहर गया।
बैठी थी अलसाई सी
तनहाई में खोई सी
फिर उलझन में थी, मैं डूबती व उतराती सी।
तभी गुदगुदी हुई
कुछ हलचल सी
वह अंगुली मेरी थामा, मैं सिहर उठी मतवाली सी।
मुझे उठाया
मुझे चलाया
फिर मेरा साथी बन मुझे टहलाया।
मेरा पोता
मेरी लाठी
मेरे तनहाई का हमराही बन गया।
मैं उठी
फिर चल पड़ी
संबल पा मैं उमंग-उत्साह से खिल उठी।
नयी उमंग मिली
नयी तरंग मिली
नयी स्फूर्ति से, फिर मैं जी और खिलखिला उठी।
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