प्यारा था वह
दुलारा था, तभी तो
जिगर का टुकड़ा कहलाता था।
सिंचा था, सँवारा था
फिर जीवन की राह भी दिखलाया था।
वह शान भी था,
था मेरा अभिमान भी
तभी तो बन गया मेरा प्रतिरुप।
राह बदला उसका
जब उसे मंजिल मिली
तभी वह खुद की पहचान बना।
संगिनी मिली
घर बच्चों से गुलजार हुआ।
फिर उसका एक परिवार बना।
आगे बढ़ा वह,और बढ़ता गया
फिर एकदिन हम छूट गए।
ज्ञात हुआ तब उसे एहसास हुआ
जब हम तस्वीर दीवार के बने।
अब रोता है,वह कलपता भी है
फिर पलके गीली करता है।
अब शीश झुकाता, नमन करता
श्रद्धा सुमन बरसाता है।
अब सोचता है, समझता है
फिर मेरी जगह खुद को पाता है।
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