स्कूल का अंतिम पीरियड,
कितना नीरस ,कितना उबाऊ।
पल-पल घड़कन बढ़ता था,
पर पल्ले कुछ नहीं पड़ता था ।
दम थामकर के हम बैठते थे,
अंदर मचती थी उथल-पुथल ।
अध्यापक ज्ञान बढ़ाते थे,
पर मन शून्य में विचरता था ।
बेताब दिल की बेकरारी में,
घण्टा बजने की इंतजारी थी ।
पेट की ज्वाला कुड़कती थी,
तब घर की याद सताती थी ।
कब बजेगी, कब बोलेगी,
कब टन-टनकर टुनटुनाएगी ।
तभी बजी छुट्टी की घंटी,
सपने हो गये साकार ।
मस्ती से शोर मचाते हुए,
मन की खुशियाँ बाहर निकली ।
चिखते-चिल्लाते, उछलते-कूदते,
दौड़ लगाकर सरपट भागे ।
छूटा हो जैसे पिंजरे से पक्षी,
विचरण को हम उन्मुक्त हुए ।
दौड़ने लगे, सड़को पर,
वह मस्ती बहुत सुहानी थी।
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