रिटायरमेंट के बाद घर में समय गुजारने वाली गायत्री की व्यस्तता और हमेशा पोते-पोतियों में उलझी रहना उनकी प्रिय सहेली प्रमिला को बहुत असहनीय लगता था। तभी तो एकदिन वह मौका पाकर गायत्री पर झल्लाकर चिल्ला पड़ी, बोली," गायत्री, तुम्हें अच्छी खासी पेंशन अपनी सुविधा और देखभाल के लिए मिलता है, जिसे तुम अपने पर खर्च न करके बेटा के सुपुर्द करके निश्चिंत हो जाती हो। यह सोचती नहीं कि तुम्हें इससे कुछ फायदा मिलता है कि नहीं। बस दिनभर पोता-पोती की गुलामी में खटती हो। इससे अच्छा तो यही था कि तुम गाँव चली जाती। गाँव में तुम स्वतंत्रतापूर्वक अपनी जिंदगी जीती और आराम से सुकून भरा जीवन व्यतीत करती।"
प्रमिला के बात करने की तीव्रता को भांपकर गायत्री शांत व सरल शब्दों मे बोली," मेरी प्यारी सहेली, इस उम्र में माली अपने सींचें सवारें बगिया को किसी और के हाथों में सौपना नहीं चाहता है। इसलिए जब तक सांस है, तब तक अपनी बगिया को संवारना और आने वाले फूल को सहेजना माली की जिम्मेदारी होती है।इस सोच के कारण मैं खुश हूँ। तुम मेरी चिंता मत करो। जहाँ तक मेरी जिम्मेदारी का प्रश्न है...वह बेटा-बहू के विवेक व सोच का काम है। मैं इस संदर्भ में अपना सर क्यों खपांऊ...वे जैसा बोयेंगें वैसा ही आगे की जिंदगी में काटेंगे। इसलिए यह सोचना उनकी जिम्मेदारी है...मेरा नहीं। अपने दुख को दुख समझो तो वह पहाड़ बन जाता है। जो सामने है उसे नीयत का खेल समझकर तसल्ली से जीते जाओ तो तसल्ली भरी जिंदगी मिलती है। इसलिए कहते है व्यस्त व मस्त रहो तो जीने का साहस और सुकून मिलता है।"
यह सुनकर प्रमिला की बोलती बंद हो गयी। वह बस इतना ही कह पायी ," तुम्हारी सोच सही है। हम जैसा सोचेंगे, हमें वैसी ही जिंदगी मिलेगी।"
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