गुरु-शिष्य का नाता..प्रेम-लगाव व सम्मान का मिश्रण होता है। गुरु के प्रति आसक्ति सच्चे मन से किया गया सम्मान ही होता है। कक्षा सात में अपनी कक्षाध्यापिका सुमन श्रीवास्तव के आकर्षक व्यक्तित्व के प्रति लगाव व झुकाव के कारण ही मैं उनकी अनन्य भक्त बन गयी। अध्यापिका के चमचागिरी के जितने भी गुण या कर्तव्य होते थे, वे मुझमें बखूबी कूट-कूटकर भरे हुए थे। तभी तो उसे निभाने में मैं निरंतर तत्पर रहती थी। टीचर्स रुम से रजिस्टर, चाक-डस्टर और कापियों के बंडल को लाने या ले जाने का जब भी मौका मिलता, मैं उस मौके को लपक लेती ताकि उसका फायदा कोई और न उठा ले। मेरी इस गुस्ताखी पर मेरी सहेलियाँ चिढ़ती थी और कटाक्ष भी करती थी...पर मैं ढ़ीठ बनी ...बिना किसी की परवाह किए अपने काम में पूरी निर्भयता व तत्परता जुटी रहती थी। मैं दिल से किसी दूसरे की दखलंदाजी बिलकुल बर्दाश्त नहीं
करती थी।
मैं खुशी के अतिरेक में उस समय बहने लगी जब सुमन मैम एक और टीचर के साथ मेरे मकान के सामने ही आकर रहने लगी। अब मेरी चाहत दूगने वेग से फड़फड़ाने लगी। छुट्टी के बाद मैं अपने बालकनी पर ही अधिकतर मड़राती रहती थी, ताकि आते-जाते उन्हें बार-बार देख संकू। प्रेम का यह पहला बालपन वाला पागलपन था। अक्सर मेरी निगाहें उनके घर पर ही टिकी रहती थी, जिससे मुझे उनके दीदार का मौका घर पर भी मिलने लगा। इस चाह में जो आत्मीयता थी, उसे मैं आज भी भूली नहीं, बल्कि और गहराई से जुड़ी हुई हूँ। ये मेरे प्यार की पहली अनुभूति थी।
पापा का ट्रांसफर हो गया। अतः हम लोग मीरजापुर से बस्ती आ गये। यहाँ के राजकीय कन्या विद्यालय में कक्षा आठ में नाम लिख गया। यहाँ संस्कृत या कला विषय में से एक का चुनाव करना था। अतः संस्कृत के पीरियड में दूसरे सेक्शन की संस्कृत पढ़ने वाली लड़कियाँ मेरे कक्षा में आती थी और मेरे कक्षा की आर्ट वाली लड़कियाँ दूसरे कक्षा में जाती थी। अटेंडेंस के समय पता चला कि दूसरे कक्षा से आने वाली लड़कियों में एक का नाम सुमन है। नाम का ही जादू था कि मैं तीखें नाक नक्शों वाली प्यारी सुमन को मैं अपनी टीचर सुमन जी का प्रतिरुप मानने लगी। मैं सुमन की सानिध्यता के लिए बेचैन रहती और अपने सीट के बगल वाली सीट पर उन्हें बैठाने के लिए आतुर रहती। जिस दिन सुमन मेरे पास बैठती, उस दिन मुझे बहुत अच्छा लगता था। धीरे-धीरे सुमन भी मेरे छोड़े जगह की महत्ता को समझने लगी, फिर वे वहीँ आकर बैठने लगी। छुट्टी के समय मेरी निगाहें सुमन को खोजती कि वह जा किधर रही है। धीरे-धीरे पता चला कि वह हमारी पड़ोसन है। अब हम लोग दोस्त बन गये। अब हमारी दोस्ती घर पर भी चालू हो गई। साथ पढ़ना,साथ खेलना चालू था। नवीं कक्षा में हम तीन दोस्तों की तिकड़ी बन गई...मैं, शांति और सुमन। बिछुड़ने के बाद भी हमने अपने दोस्ती की कड़ी को पत्रों के द्वारा जोड़े रखा। सुमन से बचपन की दोस्ती आज बुढ़ापे में लखनऊ तक भी जारी है। बचपन में बिछुड़ने के बाद हम शादी के बाद मिले। फिर तो मिलने-बिछुड़ने का सिलसिला जारी रहा, पर हम आज भी दोस्त है।
सुमन नाम का जादू मेरे जीवन का हिस्सा बन गया। पढ़ते समय एन.सी.सी. की तरफ से कैम्प में आगरा गई थी। वहाँ मैंनें सुमन मैम से दूबारा मिलने की कामना में धागा बाँधी थी। सुमन मैम तो दुबारा नहीं मिली पर इस नाम के जादू को कहे या अपनी टीचर के प्रति सच्चे लगाव को कहें या धागा बाँधने के संकल्प के प्रतिफल को ही कहें कि आज मेरे पास एक के बदले तीन सुमन है। एक दोस्त सुमन, एक देवरानी सुमन और एक समधिन सुमन। इन तीनों के प्रति मेरा स्नेह, दोस्ती और लगाव आज भी प्रगाढ़ता के चरम पर है और हम सुख-दुख के सच्चे साथी आज भी बने हुए है और मैं आज भी इन्हें दिल से अपनी अध्यापिका का प्रतिबिम्ब ही मानती हूँ और वैसा ही प्रेम करती हूँ।
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