दोस्त की उपयोगिता कितनी होती है, यह बचपन के अल्हड़ बेला में पता नहीं रहता है। तभी तो कुट्टी-मिल्ली का मजेदार खेल बचपन में खूब खेला जाता है।और इस खेल में मजा भी बहुत आता है।
मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। मेरी पक्की सहेली थी..मंजू। एकदिन मेरे और मंजू के बीच किसी बात पर कुट्टा-कुट्टी हो गया। हम एक दूसरे को देखते फिर हनक-सनक के कारण मुह फेरकर अलग हो जाते। मिलने और बातें करने की इच्छा प्रबल होते हुए भी हम पास नहीं आते थे। कभी कभी कुछ कदम जो आगे जाने और मिलने को तत्पर भी होते, तो हम उन्हें अपने गुरुर के आगोश में बाँधकर पीछे खिंच लेते। हमें समझाने बुझाने वाला कोई नहीं था।
इसी बीच मेरी पूनम दीदी की शादी का दिन आ गया। निमंत्रण-पत्र बट रहा था। हम लोग भी अपनी सहेलियों को निमंत्रण देने में लगे थे। मैं अपनी पूरी कक्षा को बुलायी, पर मंजू को मैंने जान-बूझकर छोड़ दिया। यह बात मुझे पची नहीं तो इसे मैंने अपनी रागिनी दीदी से बता दिया।
शादी के दिन मैं अपनी सहेलियों के स्वागत के साथ खुशियाँ मनाने में व्यस्त थी। तभी मेरी आती हुई सहेलियों में मंजू दिख गई। मैं अचकचाकर मुँह फेर ली तो मंजू रागिनी दीदी से बात करने लगी। रागिनी दीदी मुझे बुलाकर बोली," मंजू को मैंने बुलाया है, इसलिए इसका पूरा ध्यान रखना।"
मैंने दीदी के बात का कद्र किया और मन के मलाल को पीछे छोड़ कर उसी समय से उससे ऐसा व्यवहार की, जैसे हममें कभी कुट्टा-कुट्टी हुआ ही नहीं था।
गलत राह पर बढ़ते हुए कदम को रोकने के लिए किसी बड़े की छत्रछाया कितनी बड़ी उपलब्धि होती है...यह उस दिन समझ में आया। बड़ों की छाया में मन स्वयं को बहुत सुरक्षित महसूस करता है।
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