पाचँ रुपये का छुट्टा (लघुकथा)

करनसिंह रिक्शा से उतरकर अंधेड़ उम्र वाले रिक्सा वाले नटलू को बीस रुपया पकड़ाते हुए थोड़े तल्ख स्वर में नटलू से बोले," लाओ,पाँच रुपया जल्दी से वापस करो।"
"पाँच रुपया छुट्टा नहीं है, साहब। आपके पास हो तो दे दीजिए।" रिक्शा वाला बीस रुपया हाथ में पकड़े हुए ही बोला।
यह सुनते ही करनसिंह कड़क कर बोले," तुम चालू लोग, जानबूझ कर छुट्टा नहीं रखते हो, ताकि तुम इससे अपनी बिना मेहनतवाली अतिरिक्त आमदनी कर सको।" 
"ऐसी बात नहीं है, साहब, आप ही हमें पन्र्दह रुपया छुट्टा दे दीजिए। मैं लेकर चला जाऊंगा।" नटलू सहज भाव से बोला।
पापा को बहस में उलझते देखकर आकाश घबड़ाकर पापा की अंगुली थामकर खिंचते और गिड़गिड़ाते हुए बोला, "पापा, ये बेकार की बहस छोड़िए। मुझे स्कूल के लिए देर हो रही है। आप उसे पाँच रुपया अधिक दे दीजिए, आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा।"
"बेटा, तुम समझते क्यों नहीं हो? इनके जैसे निकम्मों को सबक सिखाना जरुरी है। वरना ये इनकी रोज-रोज की दिनचर्या बन जायेगी। और ये ऐसे ही पाँच-पाँच रुपया करके सबको लूटते रहेंगे।" यह कहकर करनसिंह रिक्शे वाले से बोले," जाओ ,जल्दी से कहीं से छुट्टा करा लाओ।"
"पापा, आपके पाँच रुपया के चक्कर में मुझे देर हो रही है। जल्दी चलिए, वरना मुझे सजा मिल जायेगी।" आकाश पापा को झकझोरते हुए फिर बोला।
"दो मिनट में तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। पर इस बूढ़े को सबक सिखाना जरुरी है। न जाने ये ऐसे ही बहाना बनाकर कितनों से फालतू कमाई कर चुका होगा।" नन्हें आकाश की अंगुली छुड़ाते हुए करन सिंह बोले।
नन्हें आकाश की हड़बड़ी और बौखलाहट बूढ़े नटलू से देखा नहीं गया, बोला,"साहब, क्यों इस पाँच रुपये के चक्कर में बच्चे के आग्रह की अनसुनी कर रहे है। लीजिए,  ये दस रुपया अपने पास  रखिये और बच्चे को जल्दी अंदर ले जाइये। वरना इसे कक्षा से बाहर ही खड़ा होने की सजा मिल सकती है।" दस रुपया जेब से निकालकर वह करनसिंह के हथेली में जबरजस्ती ठूसकर अपने रिक्शा पर बैठकर आगे बढ़ गया।
कुछ सोचते हुए करनसिंह आगे स्कूल के गेट की तरफ बढ़ने लगे, तब पापा की अंगुली थामे आकाश बड़े आदर और अपनत्व वाले भाव से नटलू को घूरते और मन ही मन में,' थैंक्यू,अंकल' बुदबुदाते हुए स्कूल के अंदर चला गया।

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