कल्लू सेठ के घर में,
रघु चोर ने सेंध लगायी।
खोद-खोदकर मिट्टी को,
लम्बी एक सुरंग बनायी।
हुआ पसीने से लथपथ वह,
फिर भी हिम्मत दिखलाया।
खूब बटोरा धन-दौलत वह,
फिर मोटी गठरी एक बनाई।
लौटने का रास्ता किधर से है,
हड़बड़ी में वह यह भूल गया।
सुरंग खोजने के चक्कर में,
वह इधर-उधर दौड़ने लगा।
रसोईघर से आती सुगंध से,
जब जीभ उसकी लुपलुपायी।
भूल गया वापस जाना है,
रसोईघर की तरफ कदम बढ़ाया।
भूल गया वह नामी चोर है,
उसने रबड़ी खूब उड़ाई।
छककर खूब खाने के बाद,
जब रबड़ी ने असर दिखलाया।
ठंड़ी बहती हवा का झोंका पाकर,
रघू को खूब जम्हाई आयी।
नरम-नरम गद्दे पर जाकर,
टांगे उसने अपनी फैलायी।
आँखें खुली, जब उसकी,
तब हड़बड़ी उसने दिखलाई।
पकड़कर उसको मुछों वाले ने,
जोर से हंटर अपनी घुमायी।
जंजीरों में वह जकड़ा गया,
फिर बंद हो गया काल कोठरी में,
बुरी बला है, लालच व चोरी,
जिसने रघु को हंटर खूब खिलायी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें