प्रस्तावना-
जीव-जंतु और पेड़-पौधों का सम्बन्ध हम लोगो से इतने करीब का होता है कि हम इनसे अलग होने की कल्पना कर ही नहीं सकते है। अतः ये या तो स्वतंत्र रहे या किसी परिवार के संग उनके पारिवारिक सदस्य के रुप में रहे। ये लोगो का स्नेह, प्यार और दुलार हमेशा पाते ही है, क्योंकि ये हमारे अनोखे प्रेम के बन्धन में बँधें हुए हमारे सहयोगी है और हम एक दूसरे के काम भी आते है।
परन्तु मेरे मन में एक कसक बराबर बनी रहती है कि हम अपने प्यारे जीव जन्तुओं को अपने लगाव, सुविधा, मनोरंजन और आवश्यकता के अनुरूप उनकी स्वतंत्रता छीनकर उन्हें पराधीन बनाकर किसी पिंजरें या बाड़े में बन्दी बना देते है। ऐसे में स्वतंत्र और स्वच्छन्द घुमने वाले जीव-जन्तु मानव जाति के हाथ की कठपुतली बन कर रह जाता है। उनके रहने का स्थान सीमित हो जाता है, जिससे उनकी कार्यक्षमता में बहुत ज्यादा कमी आ जाती है। खुले आसमान में उड़ते परिंदें जितने अच्छे और लुभावने लगते है, उतने ही पिंजरें या बाड़े में बन्द पशु-पक्षी या जीव-जंतु मासूम व निरीह लगते है। नदी में बेतरतीबी से इधर-उधर तैरते हुए जीव जितना स्वच्छंद व उल्लसित नजर आती है, उतनी एक्वेरियम के सीमित दायरे में वे प्रसन्न नजर नहीं आती है।
इन मासूम और न बोलने वाले पशु-पक्षियों की मूक भाषा को यदि हम समझ पाते तो हम इन्हें कभी कैद नहीं करते, पर जब मानव जाति ही किसी मानव की भाषा समझ नहीं पाता है, तब इन मासूमों की औकात ही क्या है?
मैंने अपने जीवन में एक संकल्प लिया कि मैं सभी जीव-जन्तुओं से प्रेम तो करुंगी, उनके सुख-दुख में शामिल रहूंगी और उन्हें अपना करीबी दोस्त भी बनाऊंगी हर हाल में , पर कभी भी उन्हें बन्धनों में जकड़ूंगी नहीं। यही कारण है कि स्वतंत्र रहने वाले बहुत से जीव-जन्तु मेरे करीब आये और मैंनें उनसे अपने प्रेम का अटूट रिश्ता भी बनाया। वे मेरे सुख-दुख के अंतरंग साथी बने, पर मैंनें उन्हें कभी भी अपने बन्धनों में जकड़ने की कोशिश नहीं की। अपने उन्हीं बेजुबान साथियों के समीपता का जो अंतरंग अनुभव मेरे मन में अंकित है, उन्हीं बेजुबान रिश्ते की डोर को ही मैं शब्दों के सुंदर जाल में बाँध कर कागज के कोरे पृष्ठों पर अंकित करने जा रही हूँ, ताकि वे संस्मरणों के रुप में आगे भी जीवित रह सकें।
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