सम्मान देना और सम्मान पाना...दोनों गौर्वांवित कर आनंद की अनुभूति प्रदान करता है।
ये घटना मेरे शादी के पूर्व की है। मेरे पति के चाचा के मृत्यु के पश्चात चाची जी और बच्चों के सामने ये समस्या आ गयी कि अब वे लोग रहेंगें कहाँ? चूंकि चाचा जी के पास कोई मकान नहीं था और कोई पुस्तैनी मकान भी ऐसा नहीं था,जहाँ उनके परिवार को शरण मिल सकती थी।
मौके की नाजुकता को भापँकर ये आगे बढ़े और चाची जी के परिवार को अपने साथ अपने घर ले आये। ये नौकरी कर रहे थे और अविवाहित थे। माँ-पापा थे नहीं और रहते थे अपने भाई-बहनों से दूर। अतः इनके उपर किसी प्रकार की बंदिश नहीं था। इसलिए चाची के परिवार को अपने पास रखने से इन्हें भी एक परिवार मिल गया।
शादी के बाद जब मैं इनके पास आयी, तब मैं भी इस परिवार की हिस्सा बन गयी। मुझे भी चाची जी का स्नेह और बच्चों का प्यार मिला। बच्चे पढ़ रहे थे। उनका पढ़ना जारी था। मैं बच्चों को अपने बच्चों जैसा मानती थी। पाँच साल ये लोग मेरे साथ थे। ये लोग अलग तब हुए जब चाची जी के बड़ी लड़की को दूसरे शहर में नौकरी मिली। चाची जी छोटी बेटी के साथ बड़ी बेटी के पास चली गई। बेटा अज्जू मेरे पास ही थे। कुछ दिनों बाद वह भी चाची जी के पास चले गये। चाची जी का परिवार धीरे धीरे व्यवस्थित होने लगा।
समय अपनी रफ्तार में बढ़ता रहा और फिर वह समय आ गया जब अज्जू की शादी तय हो गई। शादी के शुभ बेला में हम लोग चाची के परिवार के साथ थे।
बारात जाने का समय आया तो मैं भी अपने लोगों के साथ बस में चढ़ गई। बारात को बनारस से मुगलसराय जाना था। ठीक उसी समय अज्जू के बड़े भाई अशोक आये और मुझसे बोले,"आपको अम्मा बुला रही है।"
मैं उनके पीछे बस से उतर गई। नीचे आने पर वे बोले," अम्मा ने कहा है कि आप अज्जू के साथ कार में बैठकर ही जायेगी।"
अशोक मुझे कार में दुल्हा बने अज्जू के बगल में बैठा दिए। मैं भी कार में बैठी बाजों-गाजों के बीच बारात का लुफ्त उठाती हुई लड़की के घर तक पहुँच गयी।
हमारे सहयोग और सानिध्नता का जो प्रतिफल इस परिवार ने मुझे सम्मानित करके दिया, वह मेरे दिल को छू गया। मैं स्वयं को गौरवान्वित भी महसूस की। ये भी मुझे दुल्हा के बगल में बैठा देखकर खुश ही हुए होंगे।
ये सम्मान देने का अनोखा रुप था। जो मेरे जेहन के कोने में बैठा, मुझे आज भी परम् आनंद की अनुभूति कराता है।
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