पशु-पक्षियों और जीव-जंतुओं के साथ व्यतीत कियें हुए अंतरंग अनुभव (अटूट रिश्ता-6)
शादी के बाद ससुराल की दो- चार रातों के बाद की रात। गहरी नींद में सोई हुई मैं, और अचानक शरीर पर गिरती हुई मोटी सी कोई चीज, चौंक कर उठाने के लिए काफी था। हड़बड़ी में उठी तब तक बिस्तर से छलांग लगाकर भागता मोटा चूहा दिख गया। यह आया कहाँ से? उत्सुकतावश देखने के लिए नजरें उपर दौड़ाई तो पता चला कि मै जिस कमरे में सोई हुई हूँ, उसकी छत खपरैल की बनी है। शुक्र है चीख नहीं निकली, वरना बगल में सोये पति की निद्रा भंग हो जाती और सैकड़ों प्रश्नों की झड़ी लग जाती। मैं चुपचाप करवट बदल कर सो गयी।
अब मेरी निगाहें अक्सर कमरे की छत पर ही टिकी रहती थी। बाँस-बल्ली पर टंगी खपरैल के बीच में बहुत सी जगह थी जहाँ चूहों का भंडार छुपा हुआ था। ये चूहे इधर-उधर दौड़ते और धड़ाम- चौकड़ी मनाते। मैं इनमें रुचि लेने लगी तभी इनके क्रियाकलापों की जानकारी मिली। देखने में ये बड़े और डरावने थे। और रसोईघर के डिब्बों को खोलकर, उलट-पुलट कर बर्बाद करने में ये काफी आगे थे, तभी तो भाभी जी अक्सर रसोईघर के समानों को इस प्रकार व्यवस्थित करते दिखती, जो इनकी पहुचँ से दूर हो। प्लास्टिक केे डिब्बों को काटना इनके बायें हाथ का खेल था। एकबार भाभी जी के पैर के अंगूठे को येे कुतर भी लिए थे। सुबह भाभी जी हम लोगोंं सेे बोली,"रात में पैर में कुछ चुनमुनाने जैसा लगा, पर मैं इधर-उधर पैर झटककर सो गयी। मुझे क्या पता था कि चुहियों की गुस्ताखी इतनी बढ़ गयी है कि पैर से खून भी रीसने भी लगा।" हम लोग कुतरे अंगूठे को देख सहम गये।
बड़े वाले चूहे अच्छे नहीं लगते है। सच बोलू तो ये भयानक भी लगते है। सफर के दौरान जब चारबाग या किसी और प्लेटफार्म पर बैठने का अवसर मिलता है, तब ऐसे चूहे इधर-उधर दौड़ लगाते बहुत दिखते है। आदत से लाचार मैं उनके दौड़ को देखकर मजा लेने और आनन्दित होने लगती हूँ। यही कारण है कि मैं जल्दी बोर नहीं होती हूँ।
छोटे चूहे अच्छे और प्यारे लगते है। संध्या के गोरखपुर वाले मकान में छोटे चूहों का जमावड़ा बहुत अधिक था। वहाँ मैं हाल में बैठ गयी। फिर एक साथ दो-चार चूहों की धड़ाम चौकड़ी, उछना, दौड़ाना और उठापटक करना बहुत लुभावना लगने लगा। ऐसा मजेेदार खेल दुबारा देखने को नहीं मिला।
राजाजीपुरम् के मकान के फस्ट फ्लोर पर छोटी चुहिया आ गई। हम लोगों ने निश्चय कर लिया कि इन्हें यहाँ बसने नहीं देंगें। अब जब भी ये कमरे से बाहर दिखते तब हम लोग सभी कमरे की सिटकनी लगा देते फिर इन्हें इतना तब तक दौड़ाते जब तक कि ये बाहर नहीं चले जाते। एक दो बार तो ये घबड़ाकर सीढ़ियों से उतर गये और एक बार तो ये पोर्टिकों की नाली से सड़क पर कूद गये। अब अपने और बच्चों के मदद से खेलेे गये इस खेल में चुहियों के मन की घबड़ाहट और बेचैनी मन को कचोटती है।
चूहों के संदर्भ में एक मजेदार कहानी और है। हम लोग उस समय देवरिया में थे। एकदिन शाम को रसोईघर में घुसी तो सिलेंडर के गोल छेद में फँसी चुहिया की चीं-चीं और चूं-चूं ने चौंका दिया। ध्यान आकर्षित हुआ तो कलेजा मुँह को आ गया। चुहिया का पेट फँसा था जिससे उसका मुँह वाला आधा शरीर छेद के बाहर था। मन में उमड़ी संवेदना के कारण उसके मुक्ति का उपाय ढ़ूढ़ने लगी। उसे खींचकर बाहर निकालने जाती तो वह और जोर से चीखनें और झटकनें लगती। मैं डरकर हाथ खींच लेती। मौत के मुँह में फँसी चुहिया ने मुझे अधमरा कर दिया। पूरी रात मैं भी चीं-चीं और चूं-चूं में उलझी रही।
सुबह होते ही अपनी व्यथा पड़ोसन से व्यक्त की तो उन्होंने एक ऐसे बच्चे को बुलाया जो अक्सर चूहों को पकड़कर रस्सी में बाँधकर खेलता था। बच्चा आया। उसने चीं-चीं, चूं-चूं की परवाह किए बगैर पलभर में ही चुहिया को गोल-गोल घुमाकर खींच लिया। चुहिया मुक्त हो गई। उसकी आजादी मेरे लिए वरदान थी। खुशियों के माहौल में हम लोगों ने मिठाई खाकर अपनी खुशी व्यक्त किए।
एक बात और है। चूहों की अधिकता हानिकारक भी होता है। कभी-कभी इनकी अधिकता बहुत दुखदायी भी हो जाता है। कई बार मेरे रसोईघर से पूरी की पूरी रोटी गायब हो गयी। जब सतर्क हुई तो पता चला कि बड़ा, मोटा और डरावना चूहा आजकल मेरे घर का बिन बुलाया मेहमान बनाने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में इनसे छुटकारा पानें का उपाय करना बहुत दुखदायी, कष्टकारी और मानसिक पीड़ा देने वाला होता है। जब यह नहीं करना पड़ता है, तब बहुत खुशी होती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें