हाथ का हुनर और कारीगरी छिन गया,
रहने का कोई ठिकाना, जब नहीं बचा।
रोजी-रोटी के बिलकुल लाले पड़ गये,
हाल हो गया जब बहुत ही बेकार।
भूख से बिलखते परिवार नजर आने लगे,
तब संज्ञा शून्य हो गई सारी अभिलाषायें।
लुटे-पीटे से जब वे हो गए निर्रथक और बेकार ,
समर्थ हाथों का नहीं मिला सहयोग व सहारा।
मंजिल क्षितिज के पार दूर कहीं विलीन हो गई,
गाड़ियों सड़क व पटरियों पर कहीं नजर आती नहीं थी।
तब कूच कर गये, टूटी-फूटी चप्पलों के सहारे ही,
अपने गृहनगर के प्रस्थान और प्रवेश के लिए।
घरवाली व बच्चे भी, चल रहे थे कदम से कदम मिलाकर,
सिर पर लदी थी सबके, बची-खुची मेहनत वाली गृहस्थी।
मंजिल की राहें आसान नहीं थी, थी बहुत काँटों भरी,
पर उसकी कँटीली चुभन भी, मन के पींड़ा से कम थी ।
मेहमान बनके आये थे,बनने को अनजान शहर के बासी,
मेहनत की तो बना ली, अपना भी एक रैन बसेरा।
पर जब कोरोना वायरस की आई विपदा भारी,
मजबूरी में छिन गई, सारी उम्मीदें और कमाई ।
तब विकल-विह्वल व बेबस, वे नजर आने लगे,
भूख की ज्वाला बेहाल कर जलाने और तड़पाने लगी।
झेलनी न पड़ जाये अब अकस्मात कोई अनहोनी ,
यहीं भयानक भय व दुख, दिल में अब हो गया व्याप्त।
शरीर की सारी शक्ति हो गई जब जीर्ण व क्षीण ,
तब बौखलाने लगी, भूली बिसरी घर की मधुर यादें।
घर पहुचँने की चाहत बनी उनकी मजबूरी व लाचारी,
दिल बहुत घायल था, पैर के छाले बिलबिलाने लगे।
छोड़कर सूनी कर गये थे, कभी जिस डगर को,
उसी राह पर, अब पांव खुद व खुद बढ़ने लगे ।
अब घर ही आखिरी उम्मीद और अरमानों की पूंजी बनी,
घर पहुचँने की अभिलाषा, मन ही मन कुड़बुड़ाने लगी।
सूनी बिलखती वही माँ-बाप की कुटिया ही,
अब उनके सपनों का अन्तिम सहारा था।
वहीं पहुचँने की जद्दोजहद में, सारे बाधाओं को तोड़कर,
वे सारे कष्टों को व्याकुल हो झेलने के लिए मजबूर थे।
क्योंकि माँ के आँचल में लोट-पोट और बिलखकर ही,
सारे दुख-विषाद को आँसुओं में बहाना और बिसराना था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें