सात जन्मों तक साथ निभाने वाले पति-पत्नी जीतें तो साथ-साथ है। पर कुछेक को छोड़ दे तो वे मरते है अलग-अलग ही। ऐसी ही पारो थी, जिसके पति उसे अकेला बीच मझधार में छोड़कर अकेले चले गये थे। पारो ने बच्चों की परवरिश की, शादी-ब्याह करके उनका घर बसाकर उन्हें व्यवस्थित कर दी।
अब पारो बूढ़ी हो गई थी। उसका शरीर अशक्त व कमजोर था। वह सर्दी की ठिठुरन और बीमारी से उब चुकी थी। दैनिक क्रिया से निवृत्त होना उसके लिए पहाड़ फाँदने के समान था। एक गिलास पानी और खाना के लिए वह दूसरों की मोहताज थी। ऐसे में जब सब अपने कामों में व्यस्त दिखते और कोई उसकी सुधि नहीं लेता, सब नजरअंदाज करते तब वह आँसू बहाते हुए अर्धनिद्रावस्था में अपने पति माधों से शिकायत करते हुए बुदबुदाती है, " तुम चले गये, पर हम रह गये। कितनी अधुरी है हमारी जिंदगी। तुम्हारे समीपता का सुख भी दिल खोलकर जी नहीं पायी कि मझधार में फँसाकर अकेला छोड़ गये। यह नाइंसाफी क्यों किया तुमने?"
बादलों के मध्य विश्राम करते माधो को पारो की करुण पुकार सुनाई पड़ी तो वह अपने को रोक नहीं पाया। वह पारो के पास आकर उसको सहलाने का एहसास कराते हुए उसे समझाने और सांत्वना देने वाले अंदाज में बोले," अरी मेरी मैना, मैंने कौन सी पूरी जिंदगी जी है। मैंने भी तो अधूरी जिंदगी जिया है। फिर तुम यह शिकायत क्यों कर रही हो? जिंदगी का अधिकांश समय बीत गया। मौसम की सारी बहारों और तुफानों को तुम अकेले झेल गई, तब क्यों झूठमूठ का आँसू बहाकर मुझे परेशान कर रही हो? भरापूरा परिवार है तुम्हारा। एक आवाज में आगे-पीछे सब मड़राते है, फिर तुम दुखी क्यों हो? दुखी तो मैं हूँ, जो अपने परिवार से दूर यहाँ तन्हाँ पड़ा हुआ हूँ।"
" अरे, मेरी तरह बुढ़ापे की मार झेलते तब ये बोली नहीं निकलती। तुमने नाइंसाफी की है, इसलिए तुम्हें सुनना पड़ेगा।" पारो बुदबुदाई।
" बेइमानी कैसा? दोनों में से जब एक का जाना निश्चित था, तब मैंने पहले शरीर त्यागकर कौन सा अन्याय कर दिया? मैंने तुम्हें छोड़ा था इन बच्चों का सहारा बनने के लिए। यदि तुम्हें नहीं छोड़ता तो कहाँ जाते ये बच्चे? कैसे जीते ये हमारे और तुम्हारे बिना?"
पारो बोली," यह ठीक था कि एक को ही रहना था। तब क्या मैं ही उपयुक्त थी? तुम रहते तो तुम्हारी देखरेख में इनकी परवरिश और अच्छी और भली होती। तुम यह क्यों नहीं समझ पायें? मुझे बलि का बकरा बना दिए।"
माधो चौंककर बोला," ना-ना-ना इस गलतफहमी में कदापि मत रहना। जिस खूबसूरती से तुमने इनकी परवरिश की है, वैसे सलीके से मैं इन्हें कभी नहीं सम्भाल पाता। इनके भविष्य को सुरक्षित अंजाम तक पहुचाँकर तुमने अपनी बुद्धिमानी और योग्यता सिद्ध कर दिया है।"
" क्यों झूठे आश्वासन पर टिका रहे हो मुझे?" पारो कुनमुनाकर बोली।
" चापलूसी नहीं,बल्कि यह हकीकत है। यदि तुम पहले जाती, तो मैं तुम्हारे वियोग में टूटता, बिखरता। फिर गमों से छुटकारा पाने की ललक में इधर-उधर डगमगाता, डोलता और नई शादी रचा लेता। फिर न बच्चों की सुधि रहती, न बच्चों के भविष्य की चिंता होती। अच्छा हुआ जो बच गया इस नाटकीय कृत्य से। तुम त्यागमयी थी। अपने सुख को त्याग कर तुमने सिर्फ इन बच्चों के लिए जीया है। ये तुम्हारी धरोहर है। तुम्हें इन पर गर्व होगा।"
पारो अपने उपलब्धियों की सराहना पर गदगद हो गई। तभी उसे माधो की मायूसी सुनाई पड़ी," मैं ऐसे स्वर्णिम सुख से वंचित था। अपने ही बच्चों का हँसना, रोना, शैतानियों में मचलना... कुछ तो नहीं देख, सुन और महसूस कर पाया। मैं कितना बदनसीब और तुम कितनी खुशनसीब हो।"
" खुशनसीब और मैं? भला तुम्हारे बिना मैं कभी खुशनसीब हो सकती हूँ?" पारो कुनमुनाते हुए बोली।
कुछ सोचते हुए पारो फिर बोली," हाँ, खुशनसीबी के कुछ पल तब थे, जब बच्चे छोटे थे। उस समय मेरे सारे दुख, दर्द और परेशानियाँ इन बच्चों को आलिंगन में लेकर चूमने, चाटने, पुचकारने व गुदगुदाने के बाद उनकी किलकारियाँ सुनने मात्र से उड़न छूं हो जाती थी। परेशानियाँ तो उनके लालन-पालन , शिक्षा और शादियों में आई। कितनी मशक्कत, उलझन और चिंताओं वाले दिन थे। जिन्हें मैंने पूरी निष्ठा से अकेले निभाया था।"
पारो को इस सोच से बाहर निकालने के लिए माधो बोला," दुख में रोना, सुख में हँसना मानवीय प्रवृत्तियाँ है। तुम उस अनोखे क्षण को कैसे भूल गयी, जब बच्चों के सफलता पर अकेली इठलाती हुई गौरवान्वित होती थी। तुम्हें बधाईयाँ मिल रही थी। तुम हँसती-खिलखिलाती मिठाई ठूंस-ठूंस कर खा रही थी। और मेरे फोटो के सामने दो लड्डू चढ़ाकर इतिश्री कर दी। मुझे मन मारकर मजबूरी में दो लड्डू से ही खुश होना पड़ता था।"
पारो संतुष्ट हुई, बोली," हाँ मुझे याद है। बच्चों का घर परिवार बस गया तो मेरे दुख के बादल छिटक गये। अपने बच्चों के बच्चे पाकर तो मैं धन्य हो गई। क्योंकि इन बच्चों में मेरा बचपन एक बार फिर लौट आया। उस समय तो मैं स्वयं को ही भूल गयी थी।"
पारो उन्हीं पलों में खोने लगी कि माधो ने चौंका दिया, बोला," अरे, अच्छा याद दिलाया। उस समय तुम्हें मस्ती में डूबे रहना, बच्चों से घिरे रहना सब याद है मुझे। मैं कितना जलता-भुनता था और तुम मुझे याद भी नहीं करती थी। वह अकड़ अब कहाँ लुंज हो गई?"
" हाँ, आज मैं सचमुच लुंज हूँ। वे सुहाने दिन अब सचमुच सपना हो गया है। मेरे बगिया के खिलते-महकते फूल अब पतझड़ की तरह गायब हो गये। नजर नहीं आते। भरेपूरे परिवार के बावज़ूद मैं फिर अकेली हो गई हूँ।"
लम्बी सांस खिचते हुए पारो फिर बोली," मैं संतुष्ट हूँ। बच्चे फल-फूल रहे है। भविष्य के आगे भूतकाल नगण्य है। पर व्यस्तता में भी मेरा ध्यान रखते है। पर बुढ़ापे की दुखभरी चौतरफा मार के किस्से को क्या कहूँ? भरी जवानी में जाना और बुढ़ापे में घसीटकर जीने में जमीन आसमान का अंतर होता है। जब तक शरीर में शक्ति है, तब तक सब ठीक है, वरना सब बेकार। अशक्त अवस्था में अपनों का तिरस्कार और अवहेलना झेलना नारकीय होता है, तभी तो ऐसे में घबड़ाकर मुक्ति का मार्ग ही सूझता है।"
माधो हड़बड़ा कर बोला," ना पारो ना। यह दुस्साहस कभी न करना वरना नरक में जाओगी। फिर मुझसे मिलना भी नहीं हो पायेगा।"
" फिर मैं क्या करु?" पारो निराश होकर बोली।
"अपने महत्व को समझो। आजकल बूढ़े ही परिवार की धूरी होते है। उन्हीं के चारो तरफ परिवार घुमता है। यदि वे न रहे तो गृहस्थी छिन्न भिन्न होता है। पति-पत्नी दोनों कमाने के लिए बाहर जाते है। ऐसे में यदि कोई बुजुर्ग न हो तो,उनके नन्हें बच्चों के लालन-पालन पर असर पड़ता है।"
पारो खिजकर बोली," कुछ नहीं होता? मैं सब कर चुकी। अब कुछ करना बचा नहीं है। नेकी का कोई फल नहीं मिलता है। कोई इस महत्व को नहीं समझता।" पारो झनझनाकर बोली।
"घबड़ाओ नहीं। संस्कारी बच्चे अपने इस धर्म का दायित्व निभाते है। जो असंस्कारी होते है वे ये समझ नहीं पाते कि एक दिन यही सब कुछ उन्हें भी भोगना है। अच्छा ये बताओ, क्या तुमने कभी मुझे इससे पहले भी याद किया था?" माधो पारो के कान के पास जाकर फुसफुसाया।
पारो तनकर बोली," याद क्यों नहीं किया? दुख में, सुख में हर पल तुम्हें याद करके रोई हूँ। तुम्हें मेरे आँखों के कटोरे से झिलमिलाती बरसने को आतुर आँसू क्या कभी नहीं दिखे? जिसे मैं सबकी नजरें बचाकर पोंछ लेती थी। यदि तुम संबल बनकर साथ न होते तो मैं कुछ नहीं कर पाती।"
पारो भावविह्वल हो गई।
माधो बोला," सुख-दुख में सच्चा साथी ही साथ निभाता है। मैं खुश हूँ कि मैं आज भी तुम्हारे दिल में सुरक्षित हूँ।"
" सच्चा साथी? क्यों चिढ़ाते हो मुझे? सच्चे होते तो साथ ले जाते। यूं अकेले तड़पने को ना छोड़ते। खुशनसीब वे होते है जो साथ-साथ जीते है और साथ-साथ ही मरते है।"
माधो को अपनी दुनियाँ में जाने की जल्दी थी। इसलिए अपनी बात पर विराम लगाते हुए बोला," आओ, हम ऐसे सभी लोगों के लिए प्रार्थना करे, जिन्हें अकेलेपन का दुख भोगना पड़ता है। । तुम थोड़े दिन और जिंदगी के भोग लो। फिर आ जाना मेरे पास, मेरी बाहों में...। मुझे जाना है, इसलिए विदा मेरी पारो।"
" मेरे पा" पारो बुदबुदाई, कसमसाई फिर माधो को टटोलने लगी। वह निराश हो गई। माधो वहाँ नहीं था। वह अकेली थी... बिलकुल अकेली।
पारो की शिकायत खोखली नहीं थी क्योंकि उसके शिकायत पर माधो के एहसास ने अपने प्यार, विश्वास, सांत्वना और संतुष्टि की मोहर लगा दी थी। पारो समझ गयी थी की बच्चों और बच्चों के भी बच्चों के प्रति किया गया उसका प्यार, त्याग,समर्पण, सहयोग व निष्ठा निरर्थक नहीं, बल्कि उपयोगी, सार्थक और मूल्यवान है। पारो अपने बुढ़ापे के दर्द को भूल गयी।
माधो के सुखद एहसास की अनुभूति में डूबती-उतराती पारो आँखें मीचें हुए पड़ी रही, फिर नींद के आगोश में समा गयी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें