शाश्वत सत्य है मौत (कविता)

हे मौत! तुम परम सत्य हो, निष्ठुर हो, निर्मोही हो,
फिर भी, तुम्हारा यह कठोर रुप हमें स्वीकार है,
और हमें स्वयं के लिए यह मंजूर भी है।
मैं तुम्हारे आलिंगन के क्षणों से भयभीत भी नहीं हूँ ,
पर हे शाश्वत सत्य, परम पूज्यनीय अलौकिक पल, 
तुमसे भयभीत न होकर भी, 
मैं दूसरों के लिए बहुत डरी हुई हूँ।
क्योंकि हे निष्ठुर-निर्मोही-निर्गुण सत्य, 
जब तुम मेरे किसी अपने को गले लगाते हो, 
तब मैं बेबस, विह्वल, विक्षिप्त और विद्रूप हो जाती हूँ।
मेरे अपने ही क्यों?
मैं तो उस पल भी बहुत विचलित व विवश हो जाती हूँ, 
जब कभी किसी वीर सैनिक के शहीद होने पर, 
देश गौरवान्वित महसूस करता है, 
जब रेल की पटरियों पर बिखरें रोटियों के साथ, 
बिखरें शवो को मैं गिनती हूँ, 
जब बीमारियों के नाम पर अस्पतालों में, 
दम तोड़ते लोगों को देखती हूँ, 
गैस त्रासदी में सड़क पर निश्तेज पड़े, 
बेबस लोगों को निहारती हूँ, 
किन्हीं हादसों में बूढ़े, बच्चों और युवाओं, 
के जाने का दुख महसूस करती हूँ, 
किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के मरने का दुखद समाचार, 
संचार माध्यमों से सुनती हूँ, 
उस समय, हे बलशाली मौत, 
मैं बहुत भयाक्रांत हो जाती हूँ, 
तब करुणा से कलपती, छलकती, बिलखती हुई, 
अपने आँसुओं को मैं रोक नहीं पाती हूँ। 
हे मौत, तुम्हारे ऐसे वीभत्स रुप को देखकर, 
मैं बहुत विह्वल, विक्षिप्त, विषाद से विचलित रहती हूँ। 
इसलिए हे मौत, तुम अपना यह तांडव वाला 
विकराल रुप त्याग कर, 
कोमल करुणामय, करुणानिधि सा 
सरल, सूक्ष्म व सुंदर सा रुप अपनाओं। 
कुछ तो दया करो, नम्र निवेदन स्वीकार करो.. 
अपना विस्मय करने वाला वीभत्स रुप 
त्यागकर, कोमल-नरम व सरल हो जाओ, 
तुम रुकोगे तो नहीं, 
क्योंकि ठहरना तुम्हें आता नहीं है, 
इसलिए आओ जरुर, पर धीरे-धीरे, चुपके-चुपके आओ। 
इस तरह मौत का कहर न बरपाओ, कहर न बरपाओ, 
एक-एक को आगे-पीछे ले जाओ, 
एक-एक को बारी-बारी ले जाओ। 


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